SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२, ९९] द्वितीयः सर्गः रासभो न यथा शृङ्गी देशकालान्तरेऽखिलः । तथा पुमान्न सर्वशो देशकालान्तरेऽखिलः ।। ६७ ॥ इत्यादि नापमानं च युक्तमिष्टविघाततः। तथा हि खचरादीनां न स्यात्खगमनादिकम् ॥ ६८ ॥ तस्मानरविशेषोऽसौ यस्य सा सकलशता । तथा खरविशेषश्चेदिष्टा तस्यापि शृङ्गिता ॥ ६६ ।। भवति । नन] वेदार्थवेदी सर्वार्थवेदी इति । तद्वत वेदार्थज्ञानगोचरातिशयवत । सर्थिज्ञानगोचर: सर्वे. पामर्थानां ज्ञानस्य गोचरो विषयः ( सर्वे च तेऽश्चि सर्वार्याः तेषां ज्ञानं गोचरो विषयो यस्य सः, अतिशयः पुरुषत्वेऽपि कस्यचित् ) । भवति ।।९६।। रासम इति । यथा देशकालान्तरे देशान्तरे कालान्तरे वा। अखिल: सकल: । रासभः खरः । शृङ्गो विषाणी । न भवति । तथा तेन प्रकारेण । अखिल: सकलः । पुमान् पुरुषः । देशकालान्तरे देशान्तरे कालातरे। सर्वज्ञः सकलार्थवेदी। न भवति । इति मीमांसकाभिप्रायः ॥९७।। इत्यादीति । इत्यादि एवमादि । उपमानम् उपमानप्रमाणमपि । इष्टविघाततः इष्टस्याङ्गोकारस्थ विधाततो विरोधादित्यर्थः । न यक्तं न संगतम् । तथा हि उक्तार्थं विवणोति तथा होति । खचरादीनां खे चरन्तीति खचरा: ते आदयो येषां तेषां धिद्याधरादीनाम् । खगमनादिकं खगमनमादि यस्य (तत्) खगमनादिकम् आकाशगमनादिकम् । स्यात् न भवेत् ।।९८।। तस्मादिति । तस्मात् कारणात् यस्थ पुरुषस्य । सा सकल. ज्ञता सकलं जानातोति सकलज्ञः तस्य भावः सकल ज्ञता सर्वज्ञता । असौ अयम् । नरविशेष: पुरुष विशेषः । तथा तेन प्रकारेण । खरविशेषश्च[चेत्रास भविशेषश्च[चेत् । तस्यापि खरस्यापि । शृङ्गिता विषाणिता । समस्त वेदोंके अर्थको जाननेका अतिशय पाया जाता है, इसी प्रकार पुरुषत्व आदिके रहते हुए भी किसी पुरुषमें समस्त पदार्थ जाननेका अतिशय पाया जा सकता है ॥१६॥ यदि यह कहा जाये कि जैसे किसी भी देश और किसी भी कालमें गदहे सींगवाले नहीं देखे जाते, वैसे ही किसी भी देश और किसी भी कालमें मनुष्य सर्वज्ञ नहीं देखा जाता, इत्यादि उपमान सर्वज्ञता का बाधक है' तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा माननेपर आपके हो इष्टका विनाश होगा। वह इस तरह-जैसे किसी देश और किसी भी कालमें आपलोग आकाशमें गमन करनेवालेके अभावको उपमान मानकर मनुष्यमात्रमें आकाश गमनरूप उपमेयका अभाव मान लें तो आपको विद्याधरोंमें भी आकाश गमनका अभाव मानना पड़ेगा। किन्तु यह आपको इष्ट नहीं है। इसी तरह उपमानके आधारपर सर्वज्ञताका अभाव मानना भी आपको इष्ट नहीं होना चाहिए ॥९७-९८॥ इस कारण यदि यह कहा जाये कि वह विशिष्ट पुरुष होता है, जो आकाशमें गमन कर सकता है, तो हम भी यह कह सकते हैं कि वह विशिष्ट पुरुष होता है, जिसमें सर्वज्ञता होती है। यदि कहें कि इस प्रकार तो कोई विशेष प्रकारका गदहा भी ऐसा हो सकता है, जिसके सींग हों, तो ठीक है यदि आपको कहीं ऐसा गदहा मिल जाये, जिसके सींग सचमुच हों। किन्तु ऐसा गदहा मिलना असम्भव है, पर किसी विशिष्ट १. मीमांसकोंकी मान्यता है कि वेद ही पुरुषको त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का बोध करा देता है। अतः वेदके आधारपर परुषमें सभी पदार्थों को जानने का अतिशय प्रकट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001837
Book TitleChandraprabhacharitam
Original Sutra AuthorVirnandi
AuthorAmrutlal Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1971
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy