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प्रस्तावना
है । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञानके चारों भेद सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाते हैं। परोक्षके भेद
स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और आगम ये परोक्ष प्रमाणके पाँच भेद हैं। इनमेंसे स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क इन तीन प्रमाणोंको अन्य दार्शनिकोंने नहीं माना है। नैयायिकों और मीमांसकोंने प्रत्यभिज्ञानके स्थानमें उपमानको प्रमाण माना है। किन्तु व्याप्तिग्राहक तर्कको तो किसीने भी प्रमाण नहीं माना है। जैन दार्शनिकोंने युक्तिपूर्वक यह सिद्ध किया है कि तर्कके विना अन्य किसी भी प्रमाणसे व्याप्तिका ग्रहण नहीं हो सकता है।
विभिन्न दार्शनिकोंने प्रमाणकी संख्या भिन्न भिन्न मानी है। चार्वाक केवल एक प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानता है । बौद्ध और वैशेषिक दो प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक उपमान सहित चार, प्राभाकर अर्थापत्ति सहित पाँच और भाट्ट अभाव सहित छह प्रमाण मानते हैं। किन्तु जैनन्यायमें उपमानका प्रत्यभिज्ञानमें, अर्थापत्तिका अनुमानमें और अभावका प्रत्यक्ष आदिमें अन्तर्भाव करके प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाणकी द्वित्व संख्याका समर्थन किया गया है। प्रामाण्य विचार
प्रमाण जिस पदार्थको जिसरूपमें जानता है उसका उसीरूपमें प्राप्त होना प्रमाणका प्रामाण्य कहलाता है। किसी पुरुषने किसी स्थानमें दूरसे जलका ज्ञान किया और वहाँ जाने पर उसे जल मिल गया तो उसके ज्ञानमें प्रामाण्य सिद्ध हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि इस प्रकारके प्रामाण्यका ज्ञान या निर्णय कैसे होता है। अर्थात् किसीने दूरसे जाना कि वहाँ जल है, तो उसे जो जलज्ञान हुआ वह सत्य है या असत्य इसका निर्णय कैसे होगा।
जैनन्यायमें बतलाया गया है कि प्रामाण्यका निर्णय अभ्यास अवस्थामें स्वतः और अनभ्यास अवस्थामें परतः होता है। आचार्य विद्यानन्दने १. प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्वानुमानाममभेदम् । परीक्षामुख ३२ २. जैमिनेः षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिनः ।
सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयोः ।
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