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________________ ८४ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका भाषा की है । किन्तु दार्शनिक परम्पराके अनुसार इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले मति ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान लिया गया है । अत: परसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्षकी परिधि में सम्मिलिति कर लेने से प्रत्यक्षकी परिभाषामें भी परिवर्तन करनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई । प्रत्यक्षका लक्षण आचार्य सिद्धसेनने अपरोक्षरूपसे अर्थके ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है । इस लक्षण में परोक्षके स्वरूपको समझे विना प्रत्यक्षका स्वरूप समझ में नहीं आता है । अतः अकलंकदेवने लघीयस्त्रयमें विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा । और न्यायविनिश्चयमें स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है" । उनके इस लक्षण में 'साकार' और 'अञ्जसा' पदोंका भी प्रयोग हुआ है । इसका तात्पर्य यह है कि साकार ज्ञान जब अञ्जसा स्पष्ट अर्थात् परमार्थरूपसे विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । जिस ज्ञानमें किसी अन्य ज्ञानकी अपेक्षा न हो वह विशद कहलाता है । इस प्रकार दार्शनिक परम्परा के अनुसार विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञानको परोक्ष माना गया है । प्रत्यक्ष भेद प्रत्यक्ष के दो भेद हैं- मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । मुख्य प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् जाननेवाला केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । और नियत अर्थोंको पूर्णरूपसे जाननेवाले अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं । सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके भी दो भेद हैं- इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष | स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष है । और मनसे उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष १. जं परदो विष्णाणं तं तु परोक्खत्ति भणिदमत्थेसु । जं केवलेण णादं हवदि हु जीवेण पच्चक्खं ॥ २. अपोक्षतार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरज्ज्ञ यं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥ ३. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसांव्यवहारिकम् । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाण इति संग्रहः ॥ ४. प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रवचनसार गाथा ५८ न्यायावतार श्लोक ४ लयीयस्त्रय श्लो० ३ न्यायविनि० श्लो० ३ www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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