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________________ प्रस्तावना ७३ विद्यमान हैं। ऐसा होने पर भी मूर्ख लोग सर्वज्ञके विषयमें क्यों विवाद करते हैं। जैनदर्शन और सर्वज्ञता जैनदर्शनने सदा से ही त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंके प्रत्यक्ष दर्शनके अर्थमें सर्वज्ञता मानी है, और सभी जैन दार्शनिकोंने एक स्वरसे उस सर्वज्ञताका समर्थन किया है । जैनदर्शनमें धर्मज्ञता और सर्वज्ञताके विषयमें कोई भेद नहीं माना गया है । धर्मज्ञता तो सर्वज्ञताके अन्तर्गत स्वतः ही फलित हो जातो है । ऋषभनाथसे लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर सर्वज्ञ हुए हैं। महवीरके समयमें उनकी प्रसिद्धि सर्वज्ञके रूपमें थी। उस समय लोगोंमें यह चर्चा थी कि महावीर अपनेको सर्वज्ञ कहते हैं। पालित्रिपिटकोंमें भी महावीरकी सर्वज्ञताका उल्लेख पाया जाता है। धर्मकीर्तिने भी दृष्टान्ताभासोंके उदाहरणमें ऋषभ और वर्धमानकी सर्वज्ञताका उल्लेख किया है । इस प्रकार जैनदर्शनमें चौबीस तीर्थंकर तो सर्वज्ञ हुए ही हैं। इनके अतिरिक्त अन्य असंख्य आत्माओंने भी चार घातिया कर्मोंका नाश करके सर्वज्ञताको प्राप्त किया है। और भविष्य में भी कोई भी भव्य जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार कर्मका क्षय होनेपर सर्वज्ञ हो सकता है। जैन आगममें त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायोंके साक्षात् ज्ञाताके रूपमें सर्वज्ञताका प्रतिपादन किया गया है। सबसे पहले षट्खण्डागममें सर्वज्ञताका उल्लेख मिलता है । आचारांगसूत्रमें भी इसी प्रकार सर्वज्ञताका प्रतिपादन किया गया है । १. तस्मात् सर्वज्ञसद्भावबाधकं नास्ति किंचन ॥३३०७।। ततश्च बाधकाभावे साधने सति च स्फुटे । कस्माद्विप्रतिपद्यन्ते सर्वज्ञे जड़बुद्धयः ।।३३१०॥ --तत्त्वसंग्रह २. यः सर्वज्ञः आप्तो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान्, तद् यथा ऋषभवर्धमानादिरिति । -न्यायबिन्दु पृ० ९८ ३. सई भगवं उप्पण्णणाणदरिसी सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति। -षट्खं० पयडि सू० ७८ ४. से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सव्वलोए सव्वजीवाणं जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ -आचारांगसू० २।३ पृ० ४२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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