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________________ ७२ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका उसकी प्रमाणतामें कोई बाधा नहीं आती है। यदि दूरदर्शीको प्रमाण माना जाय तो गृद्धोंकी भी उपासना करना चाहिए। ___ इससे यही सिद्ध होता कि धर्मकीतिने बुद्धको धर्मज्ञ ही माना है, सर्वज्ञ नहीं। किन्तु धर्मकीर्तिकी प्रमाणवार्तिकके भाष्यकार प्रज्ञाकरने बुद्ध को धर्मज्ञके साथ सर्वज्ञ भी सिद्ध किया है और बतलाया है कि बुद्धकी तरह अन्य योगी भी सर्वज्ञ हो सकते हैं। आत्माके वीतराग हो जानेपर उसमें सब पदार्थोंका ज्ञान संभव है। वीतरागताकी तरह सर्वज्ञताके लिए प्रयत्न करनेपर सब वीतरागोंमें सर्वज्ञता भी हो सकती है। जो वीतराग हो चुके हैं वे थोड़ेसे प्रयत्नसे ही सर्वज्ञ बन सकते हैं । आचार्य शान्तरक्षित भी धर्मज्ञताके साथ सर्वज्ञताका समर्थन करते हैं और सर्वज्ञताको सभी वीतरागोंमें मानते हैं। उन्होंने बतलाया है कि नैरात्म्यका साक्षात्कार कर लेनेपर नैरात्म्यके विरोधी दोषोंकी स्थिति नहीं रह सकती है। जैसे कि प्रदीपके सद्भावमें तिमिरकी स्थिति नहीं रहती है। अतः नैरात्म्यके साक्षात्कारसे सब आवरणोंके दूर हो जाने पर सर्वज्ञत्वकी प्राप्ति हो जाती है। आवरणोंका नाश हो जानेसे वीतरागमें इस प्रकारकी शक्ति रहती है कि वह जब चाहे तब किसी भी वस्तुका साक्षात्कार कर सकता है। . [न्तरक्षितने यह भी बतलाया है कि सर्वज्ञके सद्भावका बाधक कोई भी प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उसके साधक प्रमाण १. दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृधानुपास्महे ।। -प्रमाणवा० ११३४ २. ततोऽस्य वीतरागत्वे सर्वार्थज्ञानसंभवः । समाहितस्य सकलं च कास्तीति विनिश्चतम् ।। सर्वेषां वीतरागाणामेतत् कस्मान्न विद्यते । रागादिक्षयमात्रे हि तैर्यत्नस्य प्रवर्तनात् ।। पुनः कालान्तरे तेषां सर्वज्ञगुणरागिणाम् । अल्पयत्नेन सर्वज्ञस्य सिद्धिरवारिता ॥ प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० ३२९ ३. प्रत्यक्षीकृतनैरात्म्ये न दोषो लभते स्थितिम् । तद्विरुद्धतया दीप्रे प्रदीपे तिमिरं यथा ॥३३३८॥ साक्षात्कृतिविशेषाच्च दोषो नास्ति सवासनः । सर्वज्ञत्वमतः सिद्धं सर्वावरणमुक्तितः ॥३३४९।। यद् यदिच्छति बोद्ध वा तत्तद्वेत्ति नियोगतः । शक्तिरेवंविधा तस्य प्रहीणावरणो ह्यसौ ॥३६२८॥ -तरवसंग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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