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प्रस्तावना
नहीं बनता है । ७४वीं कारिका द्वारा सर्वथा उभयकान्तमें विरोध तथा अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दके द्वारा कथन न हो सकनेकी बात कही गयी है। ७५वीं कारिकामें यह बतलाया गया है कि धर्म और धर्मीका अविनाभाव ही एक दूसरेकी अपेक्षासे सिद्ध होता है, स्वरूप नहीं । स्वरूप तो कारकाङ्ग और ज्ञापकाङ्गकी तरह स्वतः सिद्ध है। षष्ठ परिच्छेद ___ इस परिच्छेदमें ७६से७८ तक तीन कारिकाएँ हैं । ७६वीं कारिकामें यह बतलाया गया है कि हेतुसे सब वस्तुओंकी सर्वथा सिद्धि माननेपर प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोंसे उसका ज्ञान नहीं होसकेगा । और आगमसे सर्वथा सिद्धि माननेपर परस्पर विरुद्ध मतोंकी भी सिद्धि हो जायगी। ७७वीं कारिका द्वारा यह कहा गया है कि सर्वथा उभयकान्तमें विरोध आता है और अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। ७७वीं कारिका में यह कहा गया है कि स्याद्वादनयके अनुसार हेतु तथा आगमसे वस्तुकी सिद्धि किस प्रकार होती है । जहाँ वक्ता आप्त न हो वहाँ हेतुसे साध्यकी सिद्धि करना चाहिए । और जहाँ वक्ता आप्त हो वहाँ आगमसे वस्तुकी सिद्धि की जाती है । सप्तम परिच्छेद
इस परिच्छेदमें ७९ से ८७ तक ९ कारिकाएँ हैं। इसमें अन्तरंगार्थतैकान्त (ज्ञानाद्वैत) और बाह्यार्थैकान्तकी समीक्षा तथा स्याद्वादन्यायके अनुसार उनका समन्वय करते हुए जीव अर्थकी सिद्धि की गयी है । ७९वीं कारिका द्वारा बतलाया गया है कि यदि सर्वथा ज्ञानमात्र ही तत्त्व है तो सभी बुद्धियाँ और वचन मिथ्या हो जायगे। और मिथ्या होनेसे वे प्रमाणाभास कहलायगे। किन्तु प्रमाणके विना उन्हें प्रमाणाभास भी कैसे कहा जा सकता है। ८०वीं कारिकामें यह कहा है कि साध्य-साधनके ज्ञानसे अर्थात् अनुमानसे भी विज्ञप्तिमात्र तत्त्वको सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि साध्य-साधनकी विज्ञप्तिको भी विज्ञप्तिमात्र होनेके कारण प्रतिज्ञादोष और हेतुदोष आनेसे न कोई साध्य हो सकता है और न कोई हेतु हो सकता है। ८१वीं कारिकामें यह बतलाया गया है कि केवल बाह्यार्थकी सत्ता मानने पर प्रमाणाभासका लोप हो जायगा। और ऐसा होनेसे प्रत्यक्षादिविरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेवाले सभी लोगोंके मतोंकी सिद्धि हो जायगी। ८२वीं कारिकामें कहा है कि विरोध दोषके कारण उभयैकान्त नहीं बन सकता है और अवाच्यतैकान्तमें
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