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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
नहीं है तो उन दोनों (अवयव और अवयवी)से असम्बद्ध समवाय एकका दुसरेके साथ सम्बन्ध कैसे करा सकता है । ६५वीं कारिकामें बतलाया गया है कि सामान्य और समवाय आश्रयके विना नहीं रह सकते हैं। और यदि वे प्रत्येक पदार्थमें पूर्णरूपसे रहते हैं, तो नष्ट और उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में उनकी वृत्ति कैसे बनेगी । ६६वीं कारिकामें यह कहा है कि सामान्य और समवायमें कोई सम्बन्ध नहीं है। तथा अर्थके साथ भी उनका कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है। तब सामान्य, समवाय और द्रव्यादि अर्थ ये तीनों ही खपूष्पके समान अवस्तु ठहरते हैं। ६७वीं कारिका द्वारा बतलाया गया है कि कुछ लोग (वैशेषिक विशेष) परमाणुओंमें पाक न माननेके कारण अणुओंमें अनन्यतैकान्त मानते हैं। यदि ऐसा है, तो संघात अवस्थामें भी वे विभाग अवस्थाकी तरह असंहत ही रहेंगे और तब भृतचतुष्क भ्रान्तरूप ही सिद्ध होगा। ६८वीं कारिकामें कहा है कि कार्यके भ्रान्त होनेसे उसके कारण परमाणु भी भ्रान्तरूप होंगे। और दोनोंके भ्रान्त होनेसे उनमें रहने वाले गुण, जाति आदिका सद्भाव भी सिद्ध नहीं होसकेगा।
६९वीं कारिका द्वारा सांख्यके अनन्यतैकान्तकी आलोचना करते हुए कहा गया है कि यदि कार्य (महदादि) और कारण (प्रधान) सर्वथा अनन्य (एक) हैं तो उनमेंसे एकका ही अस्तित्व रहेगा। तब कार्य और कारणकी द्वित्वसंख्या भी नहीं बनेगी और संवृतिसे द्वित्वसंख्या मानना ठीक नहीं है । ७०वीं कारिकामें कहा गया है कि विरोध आनेके कारण कार्य-कारण आदिमें सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद नहीं माना जासकता है। और अवाच्यतैकान्त पक्षमें अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जासकता है। ७१वीं और ७२वीं कारिका द्वारा यह बतलाया गया है कि गुण-गुणी आदिमें किस अपेक्षासे भेद है और किस अपेक्षासे अभेद है। इस प्रकार भेद और अभेदके विषयमें सप्तभंगी प्रक्रियाकी योजना करके उनमें स्याद्वादन्यायके अनुसार समन्वय किया गया है। पञ्चम परिच्छेद __इस परिच्छेदमें ७३से७५ तक तीन कारिकाएँ हैं। इसमें वस्तु स्वरूपकी सर्वथा आपेक्षिक सिद्धि और सर्वथा अनापेक्षिक सिद्धि माननेकी समीक्षा की गयी है। ७३वीं कारिकामें कहा गया है कि यदि धर्म, धर्मी आदिकी आपेक्षिक सिद्धि मानी जाय तो दोनोंकी ही व्यवस्था नहीं बन सकती है। और अनापेक्षिक सिद्धि माननेपर उनमें सामान्य-विशेषभाव
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