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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
तथा चेतनमें अचेतनताका प्रसंग प्राप्त होगा । बारहवीं कारिकामें कहा गया है कि अभावैकान्त मानने पर न बोध प्रमाण हो सकता है और न वाक्य | और प्रमाणके अभाव में स्वपक्षसिद्धि तथा परपक्षदूषण संभव नहीं है । तेरहवीं कारिकामें कहा गया है कि वस्तुको सर्वथा भावरूप और सर्वथा अभावरूप अर्थात् दोनों एकान्तरूप नहीं माना जा सकता । तथा उसे सर्वथा अवाच्य भी नहीं कहा जा सकता । १४ से १६ तक तीन कारिकाओं द्वारा स्याद्वादनयकी अपेक्षासे वस्तुको कथंचित् सत्, असत्, उभय, अवाच्य, सदवाच्य, असदवाच्य और सदसदवाच्य सिद्ध किया गया है । १७ से २१ तक पाँच कारिकाओं द्वारा यह बतलाया गया है कि अस्तित्व नास्तित्वका अविनाभावी है और नास्तित्व अस्तित्वका अविनाभावी है । और अस्तित्व - नास्तित्वरूप वस्तु ही शब्दका विषय होती है । जो वस्तु विधि और निषेधरूप नहीं है वह अर्थक्रिया भी नहीं कर सकती है । अर्थात् सर्वथा एकान्तरूप वस्तु अर्थक्रिया नहीं करता है । बाईसवीं कारिकामें बतलाया गया है कि अनन्तधर्मात्मक वस्तुके प्रत्येक धर्मका अर्थ ( प्रयोजन) भिन्न होता है । और उनमें से किसी एक धर्मके मुख्य होने पर शेष धर्म गौण हो जाते हैं । तेईसवीं कारिकामें कहा गया है कि सत्त्व-असत्त्वकी तरह एकत्व - अनेकत्व आदि धर्मों में भी पूर्वोक्त सप्तभंगोकी प्रक्रियाकी योजना कर लेना चाहिये ।
द्वितीय परिच्छेद
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द्वितीय परिच्छेद में २४ से ३६ तक १३ कारिकाएँ हैं । चौवीसवीं और पच्चीसवीं कारिका द्वारा अद्वैतैकान्तकी समीक्षा करते हुए बतलाया गया है कि वस्तुको सर्वथा एक मानने पर कारक भेद, क्रिया-भेद, पुण्यपापरूप कर्मद्वैत, सुख-दुःखरूप फलद्वैत, इहलोक-परलोकरूप लोकद्वैत, विद्या और अविद्याका द्वैत तथा बन्ध और मोक्षका द्वैत, यह सब नहीं बन सकेगा । २६वीं कारिका द्वारा कहा गया है कि हेतुते अद्वैतकी सिद्धि करने पर हेतु और साध्यका द्वैत हो जायगा । और हेतुके विना सिद्धि मानने पर वचनमात्रसे ही सबकी इष्ट सिद्धि हो जायगी । २७वीं कारिकामें बतलाया गया है कि विना द्वैतके अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि प्रतिषेध्यके विना (द्वैत के अभाव में) संज्ञी (द्वैत) का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है । २८वीं कारिका द्वारा सर्वथा पृथक्त्ववादी (भेदैकान्तवादी ) वैशेषिकों की आलोचना करते हुए बतलाया गया है कि पृथक्त्व गुणसे द्रव्यादिको अपृथक् नहीं माना जा सकता है, क्योंकि गुण और गुणी
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