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________________ प्रस्तावना ५९ अष्टसहस्रीमें अनेक दार्शनिकोंका नामोल्लेख करके उनके सिद्धान्तोंकी आलोचना कीगयी है। उनमेंसे कुछ नाम इस प्रकार हैं तदेतदनालोचितामिधानं मण्डनमिश्रस्य ( पृ० १८), एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं यदुक्तं धर्मकीर्तिना (पृ० २५), यदाह धर्मकीर्तिः ( पृ० ८१ ), इति धर्मकीर्तिदूषणम् (पृ० १२२), ततो विवक्षारूढ एवार्थो वाक्यस्य न पुनर्भावना इति प्रज्ञाकरः' (पृ० २१), 'नेदं प्रज्ञाकरवचश्चारु' (पृ० २२), 'यदप्यवादि प्रज्ञाकरेण' (पृ० २४), 'तदेतदपि प्रज्ञापराधविज़म्भितं प्रज्ञाकरस्य' (पृ० २६), 'इति कश्चित् सोऽप्यप्रज्ञाकर एव' (पृ० ११३ ), 'इति प्रज्ञाकरमतमप्यपास्तम्' (पृ० २७७) । इस प्रकार अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंके सिद्धान्तोंका उल्लेख अष्टसहस्रीमें उपलब्ध होता है। यही कारण है कि अष्टसहस्रीके अध्ययनसे स्वसमय और परसमयका बोध सरलतापूर्वक हो सकता है। आप्तमीमांसाको कारिकाओंका प्रतिपाद्य विषय आप्तमीमांसामें दश परिच्छेद हैं और उनमें कुल ११४ कारिकाएँ हैं। इसका मुख्य विषय है-आप्तकी मीमांसा | प्रथम परिच्छेद प्रथम परिच्छेदमें २३ कारिकाएं हैं। प्रथम तीन कारिकाओंमें देवागमन आदि, निःस्वेदत्व आदि अन्तरङ्ग अतिशय और गन्धोदकवृष्टि आदि बहिरङ्ग अतिशय, तथा तीर्थकरत्व आदि उन विशेषताओंकी मीमांसा की गयी है, जिनके कारण कोई अपनेको आप्त मान सकता है। चौथी कारिकामें किसी पुरुषमें दोष और आवरणकी सम्पूर्ण हानि सिद्ध की गयी है । पाँचवीं कारिकामें अनुमेयत्व हेतुसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों में प्रत्यक्षत्व (सर्वज्ञत्व) सिद्ध किया गया है। अर्थात् सामान्यसे सर्वज्ञ सिद्धि की गयी है। छठवीं कारिकामें 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्व' हेतुसे अर्हन्तमें निर्दोषत्व और आप्तत्व सिद्ध किया गया है। सातवीं कारिकामें बतलाया गया है कि सर्वथा एकान्त वादियोंका इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है। आठवीं कारिकामें बतलाया है कि एकान्तवादियोके मतमें पूण्य-पाप कर्म, परलोक आदि कुछ भी नहीं बन सकता है। ९ से ११ तक तीन कारिकाओं द्वारा यह बतलाया गया है कि भावैकान्त मानने पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावका निषेध हो जायगा। और ऐसा होने पर कार्यद्रव्यमें अनादिता, अनन्तता, सर्वात्मकता और अचेतनमें चेतनताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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