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________________ प्रस्तावना क्या लाभ है। केवल इस अष्टसहस्रीको सुन लीजिए। इतने मात्रसे ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तका ज्ञान हो जायगा। आचार्य विद्यानन्दको दार्शनिक उपलब्धियाँ ___यह पहले बतलाया जा चुका है कि आचार्य विद्यानन्दको समस्त दर्शनोंका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त था। जैनवाङ्मयमें भावना, विधि और नियोगकी चर्चा सर्वप्रथम विद्यानन्दकी अष्टसहस्री और तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें ही विस्तारसे देखनेको मिलती है। कुमारिलभट्ट भावनावादी हैं, प्रभाकर नियोगवादी हैं और वेदान्ती विधिवादी हैं। इनके ग्रन्थोंके सूक्ष्म अध्ययनके विना भावना आदिका इतना गहन और विस्तृत विवेचन असंभव है। तत्त्वोपप्लववादका पूर्व पक्ष और उसका विस्तारसे निराकरण सर्वप्रथम इन्हींके ग्रंथोंमें देखा जाता है। जयसिंहराशिका 'तत्त्वोपप्लवसिंह' नामक ग्रन्थ कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हुआ है । उसका निम्न श्लोक तदतद्रूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः । तद्रूपादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ।। अष्टसहस्रीमें पृ० ७८ पर उद्धृत हुआ है । आचार्य विद्यानन्दने मीमांसक कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकसे प्रभावित होकर तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिककी रचना की थी। इसमें प्रथम अध्यायके अन्तिम सूत्रपर १०० श्लोकोंमें नयोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। और अन्त में लिखा है कि विस्तारसे नयोंका स्वरूप जानने के लिए नयचक्रको देखना चाहिए। इस नयचर्चामें आचार्य विद्यानन्दने सिद्धसेन दिवाकरके षड्नयवादको स्वीकार नहीं किया है । उनका कहना है कि नैगम नयका अन्य किसी नयमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सिद्धसेनने नैगम नयको पृथक् नहीं माना है। आचार्य विद्यानन्दने अण्टसहस्रीमें भी ( पृ० २८७ ) नयोंका सामान्यरूपसे उल्लेख करके लिखा है 'बहुविकल्पा नया नयचक्रतः प्रतिपत्तव्याः । १. संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्यातास्तत्र सूचिताः । तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ॥ -त० श्लो० वा० पृ० २७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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