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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथमके समकालीन थे । और उन्होंने अपनी कृतियाँ प्रायः उन्हींके राज्यकाल में बनायी थीं । विद्यानन्दका कार्यक्षेत्र भी गंगवंशका गंगवाडि प्रदेश रहा होगा। गंग राजाओंका राज्य मैसूर प्रान्त में था । शिलालेखों और दानपत्रोंसे ज्ञात होता है कि इस राज्यके साथ जैनधर्मका घनिष्ट सम्बन्ध था । श्रीमान् पं० डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना में विद्यानन्दका समय ईस्वी सन् ७७५ से ८४० तक सिद्ध किया है ।
आचार्य विद्यानन्दकी रचनाए
अकलंकदेवकी तरह आचार्य विद्यानन्दकी रचनाएँ भी दो प्रकार की हैं- टीकात्मक और स्वतंत्र । अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और युक्त्यनुशासनालंकार ये तीन टीकात्मक रचनाएँ हैं । आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र और विद्यानन्दमहोदय ये छह स्वतन्त्र रचनाएँ हैं । इनमेंसे अन्तिम रचनाको छोड़कर शेष सब उपलब्ध तथा प्रकाशित हैं । अन्तिम रचना अनुपलब्ध है | अष्टसहस्त्री
यह आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित आप्तमीमांसापर विस्तृत और महत्त्वपूर्ण व्याख्या है । इस व्याख्या में अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशती को इस प्रकारसे आत्मसात् कर लिया गया है, जैसे वह अष्टसहस्रीका ही अंग हो । यदि आचार्य विद्यानन्द अष्टसहस्रीको न बनाते तो अष्टशतीका रहस्य समझ में नहीं आ सकता था । क्योंकि अष्टशतीका प्रत्येक पद और वाक्य इतना जटिल और गूढ है कि अष्टसहस्रीके विना विद्वान् का भी उसमें प्रवेश होना अधक्य है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे आप्तमीमांसा और अष्टशतीके हार्दको विशेषरूपसे स्पष्ट किया है । आप्तमीमांसा और अष्टशती में निहित तथ्योंके उद्घाटनके अतिरिक्त अष्टसहस्री में अनेक नूतन विचारोंका भी समावेश किया गया है । हम कह सकते हैं कि अष्टसहस्रीमें पूर्वपक्ष या उत्तरपक्षके रूपमें समस्त दर्शनोंके सिद्धान्तोंका विवेचन किया गया है । इसीलिए आचार्य विद्यानन्दने साधिकार कहा है कि हजार शास्त्रोंके सुननेसे
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१. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायते
ययैव
स्वसमयपरसमय सद्भावः ॥
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-- अष्टस० पृ० १५७
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