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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
अकलङ्क देवकी तरह प्रज्ञाकर गुप्तने भी पीतशंखादि ज्ञानको संस्थान मात्र अंशमें प्रमाण तथा पीतांशमें अप्रमाण माना है। उनका कहना है कि पीतशंखादि ज्ञानोंके द्वारा अर्थक्रिया नहीं होती है, अतः वे प्रमाण नहीं हैं। किंतु संस्थानमात्र अंशसे होनेवाली अर्थक्रिया तो उनसे भी हो सकती है, अतः उस अंशमें उन्हें अनुमानरूपसे प्रमाण मानना चाहिए । तथा अन्य अंशमें संशय मानना चाहिए । इस प्रकार एक ज्ञानमें आंशिक प्रमाणता और आंशिक अप्रमाणता सिद्ध होती है । अष्टशतीमें अकलङ्क देवने प्रज्ञाकर गुप्तकी संस्थानमात्रमें अनुमान माननेकी बातका खण्डन किया है। परोक्ष प्रमाण वैशिष्टय __ अकलङ्क देवने परोक्ष प्रमाणके प्रकरणमें नैयायिकके उपमान प्रमाणकी आलोचना करते हुए प्रत्यभिज्ञानके एकत्व, सादृश्य, प्रतियोगी आदि अनेक भेदोंका उपपादन किया है । और उपमानका सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव किया है। तथा सर्वदेशावच्छेदेन और सर्वकालावच्छेदेन व्याप्तिज्ञानके लिए तर्क प्रमाणकी आवश्यकता सिद्ध की है। साध्य और साध्याभासका स्वरूप स्थिर किया है। हेतु और हेत्वाभासकी व्यवस्था की है। जैनाचार्योने प्रारंभसे ही अन्यथानुपपन्नत्व या अविनाभावको साधनका एकमात्र लक्षण माना है। अकलङ्कने बौद्धोंके १. पीतशंखादिविज्ञानं तु न प्रमाणमेव तथार्थक्रियाव्याप्तेरभावात् । संस्था
नमात्रार्थक्रियाप्रसिद्धावन्यदेव ज्ञानं प्रमाणमनुमानम्, तथाहि प्रतिभास एवम्भूतो यः स न संस्थानवर्जितः । एवमन्यत्र दृष्टत्वादनुमानं तथा च तत् ।। ततोऽनुमानं संस्थाने, संशयः परत्रेति प्रत्ययद्वयमेतत् प्रमाणमप्रमाणं च । अनेन मणिप्रभायां मणिज्ञानं व्याख्यातम् ।
__प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० ६ २. नापि लैङ्गिक लिङ्गलिङ्गिसन्बन्धाप्रतिपत्तेः अन्यथा दृष्टान्तेतरयोरेकत्वात् कि केन कृतं स्यात् ।
अष्टश० अष्टस० पृ० २७७ ३. साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥
न्यायविनिश्चय श्लो० १७२
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