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________________ प्रस्तावना अकलङ्कका समय अकलङ्कदेवने भर्तृहरि कुमारिल तथा धर्मकीर्तिकी आलोचनाके साथ ही साथ प्रज्ञाकर गुप्त, कर्णकगोमि, धर्मोत्तर आदिके विचारोंका भी आलोचन किया है । अतः अकलंकका समय इन सबके बादका है । श्रीमान पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना में अकलंकका समय ईस्वी सन् ६२० से ६८० निर्धारित किया है । किन्तु पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्यने अकलंकग्रन्थत्रयकी प्रस्तावनामें अकलंकका समय सन् ७२० से ७८० तक सिद्ध किया है । अकलङ्ककी रचनाएँ ४५ अकलङ्ककी दो प्रकारकी रचनाएँ उपलब्ध हैं - १. पूर्वाचार्योंके ग्रन्थोंपर भाष्यरूप रचना और २. स्वतंत्र रचना । इनमेंसे अष्टशती और तत्त्वार्थ राजवार्तिक ये दो भाष्यरूप रचनाएँ हैं । और लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, सिद्धिविनिश्चय आदि स्वतंत्र रचनाएँ हैं । अष्टशती स्वामी समन्तभद्रके आप्तमीमांसा नामक प्रकरण ग्रन्थका यह भाष्य है । गहनता, संक्षिप्तता तथा अर्थगाम्भीर्य में इसकी समानता करने के योग्य कोई दूसरा ग्रन्थ दार्शनिक क्षेत्रमें दृष्टिगोचर नहीं होता । अष्टशतीमें उन सब विषयों पर तो प्रकाश डाला ही गया है जो आप्तमीमांसामें उल्लिखित हैं । किन्तु इनके अतिरिक्त इसमें नये विषयोंका भी समावेश किया है । इसमें सर्वज्ञको न मानने वाले मीमांसक और चार्वाकके साथ साथ सर्वज्ञविशेष में विवाद करनेवाले बौद्धों की भी आलोचना की गयी है । सर्वज्ञसाधक अनुमानका समर्थन करते हुए उन पक्षदोषों और हेतुदोषोंका उद्भावन करके खण्डन किया गया है जिन्हें दिग्नाग आदि बौद्ध नैयायिकोंने माना है | इच्छाके विना वचनकी उत्पत्ति, बौद्धोंके प्रति तर्क प्रमाणकी सिद्धि, धर्मकीर्ति द्वारा अभिमत निग्रहस्थानकी आलोचना, स्वलक्षणको अनिर्देश्य मानने की आलोचना, स्वलक्षणमें अभिलाप्यत्वकी सिद्धि, ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्वकी आलोचना, सर्वज्ञमें ज्ञान और दर्शनकी युगपत् प्रवृत्तिकी सिद्धि आदि नूतन विषयों पर अष्टशतीमें अच्छा प्रकाश डाला गया है । आचार्य अकलङ्की दार्शनिक उपलब्धियाँ Jain Education International जैनन्यायकी प्रतिष्ठा अकलङ्क देवके पहले केवल आगमिक परम्पराके अनुसार सामान्यरूपसे प्रमाण, नय, स्याद्वाद, सप्तभंगी आदिका सूत्ररूपमें उल्लेख दृष्टि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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