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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिजरजः स्नानं च यस्याचरदोषाणां सुगतः स कस्य विषयो देवाकलंक: कृतिः ॥ पाण्डवपुराण में तारादेवीके घटको पैरसे ठुकरानेका उल्लेख इस प्रकार है—
अकलंकोऽकलंकः स कलौ कलयतु श्रुतम् ।
पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता ॥
इसीप्रकार मान्यखेटके राजा साहसतुंगकी सभा में अकलंकके जानेका उल्लेख भी मल्लिषेण प्रशस्ति में है । उक्त उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि अकलंक देव एक महावादी और शास्त्रार्थी थे ।
अकलंक परिचय
अन्य आचार्यों की तरह अकलंक देवने भी अपने किसी ग्रन्थमें अपना कुछ भी परिचय नहीं लिखा है । किन्तु अन्य स्रोतोंके आधार पर उनके विषय में जो जानकारी प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है ।
प्रभाचन्द्रके गद्य कथाकोश, ब्रह्मचारी नेमिदत्तके पद्य कथाकोश और कन्नड़ भाषा के 'राजावली कथे' नामक ग्रन्थोंमें अकलंककी जीवन कथा मिलती है । कथाकोशके अनुसार अकलंककी जन्मभूमि मन्यखेट थी और वे वहाँके राजा शुभतुंगके मंत्री पुरुषोत्तमके पुत्र थे । मान्यखेट नगर एक समय राष्ट्रकूट वंशी राजाओंकी राजधानी था और राष्ट्रकूटवंशी राजाओंमेंसे कृष्णराज प्रथम शुभतुंग नाम से प्रसिद्ध था । तथा उसके भतीजे दन्तिदुर्गका दूसरा नाम साहसतुंग था । और अकलंक साहसतुंगकी सभा में गये थे। राजावली कथेके अनुसार अकलङ्क काञ्चीके जिनदास नामक ब्राह्मणके पुत्र थे । काञ्ची नगर इतिहास में प्रसिद्ध है । यह द्रविण देशकी राजधानी था । इसे दक्षिण भारतकी काशी कहा जाता है ।
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अकलंकदेवके तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक ग्रन्थके प्रथम अध्यायके अन्तमें एक श्लोक पाया जाता है जिसमें उन्हें लघुहव्व नृपतिका पुत्र बतलाया गया है । वह श्लोक निम्न प्रकार है
जीयाच्चिरमकलङ्कब्रह्मा लघुहव्वनृपत्तिवरतनयः । अनवरतनिखिलजननुतविद्यः
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प्रशस्तजनहृद्यः ॥
इससे ज्ञात होता है कि अकलंक एक राजपुत्र थे और उनके पिताका नाम लघुहव्व था । यह भी निश्चित प्रतीत होता है कि अकलङ्क दक्षिण भारत के निवासी थे । भट्ट इनकी उपाधि थी । इस उपाधिका प्रयोग इनके नाम के पहले किया जाता है। और नामके आगे 'देव' शब्दका प्रयोग भी देखा जाता है । इससे प्रतीत होता है कि वे देवके समान पूज्य थे ।
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