________________
३४४
आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० में अविनाभाव है । विधिके विना प्रतिषेधका और प्रतिषेधके विना विधिका अस्तित्व नहीं बनता है। प्रतिषेध्यके साथ विधेयका कोई विरोध नहीं है । वस्तु अस्तित्वादि धर्मकी अपेक्षासे विधेय होती है । और नास्तित्वादि धर्मकी अपेक्षासे प्रतिषेध्य होती है । वस्तु न सर्वथा विधेय है और न सर्वथा प्रतिषेध्य । विधेयको प्रतिषेध्यका विरोधी न होनेके कारण ही वस्तुमें हेयत्व और आदेयत्वकी व्यवस्थाकी जाती है। विधेयका एकान्त मानने पर वस्तुमें हेयत्वका विरोध होता है। और प्रतिषेध्यका एकान्त मानने पर आदेयत्वका विरोध होता है। जो सर्वथा विधेय है वह प्रतिषेध्य नहीं हो सकता है, और जो सर्वथा प्रतिषेध्य है वह विधेय नहीं हो सकता है। अतः कथंचित् विधेय और प्रतिषेध्य वस्तुमें ही आदेयत्व और हेयत्व बन सकता है।
विधेय और प्रतिषेध्यमें भी सप्तभंगीके आश्रयसे स्याद्वादकी व्यवस्था की जाती है । अस्तित्वादि धर्म कथंचित् विधेय है और कथंचित् अविधेय है । वह स्वकी अपेक्षासे विधेय है और प्रतिषेध्यकी अपेक्षासे अविधेय है। इसी प्रकार नास्तित्व आदि धर्म कथंचित् प्रतिषेध्य है और कथंचित् अप्रतिषेध्य है। वह विधेयकी अपेक्षासे प्रतिषेध्य है, और प्रतिषेध्यकी अपेक्षासे अप्रतिषेध्य है। इसी प्रकार जोवादि पदार्थ भी कथंचित् विधेय और कथंचित् प्रतिषेध्य होते हैं । अतः सर्वत्र युक्ति और शास्त्रसे विरोध न होनेके कारण स्याद्वादकी निर्विरोध और समीचीन सिद्धि होती है। __ आप्तमीमांसाकी रचनाके कारणको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।
सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥११४॥ अपने हितको चाह वालोंको सम्यक् और मिथ्या उपदेशमें भेदविज्ञान करानेके लिए यह आप्तमीमांसा बनायी गयी है।
आप्तमीमांसाको बनानेका कारण हितेच्छु पुरुषोंको सम्यक् और मिथ्या उपदेश भेदविज्ञान कराना है। मन्द बुद्धि आदिके कारण प्राणी यह नहीं समझ पाते हैं कि किसका उपदेश सम्यक् है, और किसका उपदेश मिथ्या है । आप्तमीमांसामें आप्तके स्वरूपका विचार किया गया है। जिसके वचन सत्य हों अर्थात् युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हों वही आप्त है । ऐसी आप्तता अर्हन्तमें ही सिद्ध होती है, अन्यमें नहीं। जब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org