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कारिका - ११३]
तत्त्वदीपिका
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(वाच्य) नहीं है । अतः अन्यापोहका प्रतिपादन करने वाले वचन मिथ्या हैं । और अभिप्रेत अर्थ विशेषकी प्राप्तिका सच्चा साधन स्यात्कार (स्याद्वाद ) है ।
यह पहले बतलाया जाचुका है कि अन्यापोह शब्दका अर्थ नहीं है । यथार्थ बात यह है कि शब्द स्वार्थसामान्यका प्रतिपादन करते हुए अन्य अर्थों का अपोह (निषेध) भी करते हैं । केवल अन्यापोह (अन्यका निषेध) को शब्दार्थ मानना ठीक नहीं है । क्योंकि अन्यापोह शब्दका अर्थ सिद्ध नहीं होता है । शब्दका अर्थ वही हो सकता है जिसमें शब्दकी प्रवृति हो । अन्यापोहमें किसी भी शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः अन्यापोहका प्रतिपादन करने वाला वाक्य मिथ्या है । वास्तवमें वही वाक्य सत्य है, जिसके द्वारा अभिप्रेत अर्थ विशेषकी प्राप्ति होती है, और ऐसा वाक्य 'स्यात्' शब्द से युक्त होता है । और उसीसे अभिप्रेत अर्थका ज्ञान तथा प्राप्ति होती है । स्यात्कारसे रहित अन्य वाक्योंसे अभिप्रेत अर्थ विशेषकी प्राप्ति नहीं हो सकती है । यही स्याद्वाद और अन्य वादोंमें अन्तर है । जब सामान्यविशेषात्मक वस्तुका मुख्यरूपसे सामान्यकी अपेक्षासे कथन किया जाता है तब उसका विशेषरूप गौण होकर वक्ताके अभिप्रायमें स्थित रहता है । और इस अभिप्रेत अर्थ विशेषको स्यात् शब्द सूचित करता है | अतः स्याद्वाद ही सर्वथा सत्य और अभिप्रेत अर्थका साधक है | तथा अन्य समस्त वाद मिथ्या हैं ।
उक्त अर्थका समर्थन करनेके लिए आचार्य कहते हैं
विधेयमीप्सितार्थाङ्कं प्रतिषेध्याविरोधि यत । तथैवादेययत्वमिति स्याद्वादसंस्थितिः ॥ ११३॥
प्रतिषेध्यका अविरोधी जो विधेय है वह अभीष्ट अर्थकी सिद्धिका कारण है । विधेयको प्रतिषेध्यका अविरोधी होनेके कारण ही वस्तु आदेश और हेय है । इस प्रकारसे स्याद्वादको सम्यक् स्थिति (सिद्धि) होती है।
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पदार्थ विधेय भी है और प्रतिषेध्य भी है । भय आदिके विना मनमें अभिप्राय पूर्वक जिसका विधान किया जाता है वह विधेयकला 'घटोsस्ति' 'घट है, ' यहाँ घटका अस्तित्व विधेय है । और घटका नास्तित्व प्रतिषेध्य है । प्रत्येक वस्तुमें अस्तित्वादि विधेय नास्तित्वादि प्रतिषेध्य के साथ विना किसी विरोधके रहता है । विधि और प्रतिषेधमें परस्पर
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