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३४० आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१० उपेक्षा न करके उनको भी ग्रहण करे, तो प्रमाण और नयमें कोई भेद नहीं रहेगा। प्रमाण विवक्षित और अविवक्षित सब धर्मोको ग्रहण करता है। अथवा प्रमाणके लिए सब धर्म विवक्षित ही हैं। किन्तु नय विवक्षित एक धर्मको ही ग्रहण करता है, और शेष धर्मोकी उपेक्षा कर देता है, तथा उनका निराकरण नहीं करता है। परन्तु जो दुर्नय है वह अन्य धर्मोंका निराकरण करके केवल एक धर्मका ही अस्तित्व सिद्ध करता है। निरपेक्ष नयोंके द्वारा कुछ भी अर्थक्रिया संभव नहीं है। उनके द्वारा किसी भी पदार्थका यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता है। किन्तु स्याद्वाद सम्मत नय ऐसे नहीं हैं । वे परस्पर सापेक्ष होते हैं। यही कारण है कि वे सम्यक् नय हैं। और उनके द्वारा पदार्थों में अधिगमरूप अर्थक्रिया भी होती है। अर्थात् उनके द्वारा पदार्थका यथार्थ ज्ञान होता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि अनन्त सत्य धर्मोंका समुदाय रूप द्रव्य भी सत्य ही है, मिथ्या नहीं।
अनेकान्तात्मक अर्थका वाक्यके द्वारा नियमन कैसे होता है, इस बातको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं
नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा ।
तथाऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा ॥१०९।। अनेकान्तात्मक अर्थका विधिवाक्य और निषेधवाक्यके द्वारा नियमन होता है। क्योंकि अनेकान्तात्मक होनेसे अर्थ विधिरूप भी है, और निषेधरूप भी है। किन्तु इससे विपरीत एकान्तरूप अर्थ अवस्तु है ।
यहाँ यह बतलाया गया है कि अनेकान्तात्मक अर्थका वाक्यके द्वारा नियमन कैसे होता है। प्रधानरूपसे वाक्य दो प्रकारके होते हैं-विधिवाक्य और निषेधवाक्य । 'घटोऽस्ति' यह विधिवाक्य है, और 'घटोनास्ति' यह निषेधवाक्य है। अर्थ भी विधिरूप और निषेधरूप अर्थात् अनेकान्तात्मक है। और अनेकान्तात्मक अर्थ ही अर्थक्रियाको करने में समर्थ है। एकान्तरूप अर्थ, चाहे वह सत् रूप हो, या असत्रूप हो, या और कोई रूप हो, अर्थक्रियाको करनेमें सर्वथा असमर्थ है। न तो तत्त्व सर्वथा सत्रूप है, और न असत्रूप है। इसीलिए न सत्त्वैकान्त ही है, और न असत्त्वैकान्त ही। तात्पर्य यह है कि अनेकात्मात्मक अर्थके विधिरूप और निषेधरूप होनेसे विधिवाक्य और निषेधवाक्यके द्वारा उसका नियमन होता है। जिस समय विधिवाक्य अर्थका प्रतिपादन करता है, उस समय विधि अंश प्रधान रहता है, और निषेधांश
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