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________________ कारिका - १०६ ] तत्त्वदीपिका २३७ का निषेध करता है । और यदि लिङ्ग, संख्या, कारक, काल आदिका भेद है, तो शब्दयकी दृष्टिसे अर्थ में भी भेद होता है । लिङ्गव्यभिचारपुष्यः नक्षत्रं तारका चेति । यहाँ पुल्लिङ्ग पुष्य शब्दके साथ नपुंसक लिङ्ग नक्षत्र और स्त्रीलिंग तारा शब्दका प्रयोग करना लिङ्गव्यभिचार है । संख्याव्यभिचार - आपः तोयम्, आम्रा वनम् । यहाँ बहुवचनान्त आपः और आम्र शब्द के साथ एकवचनान्त तोय और वन शब्दका प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है । कारकव्यभिचार — सेना पर्वतमधिवसति । यहाँ 'पर्वते' ऐसा अधिकरण कारक होना चाहिए था, किन्तु 'पर्वतम् ' ऐसे कर्मकारकका प्रयोग किया गया है । कालव्यभिचार'विश्वश्वा अस्य पुत्रो जनिता', इसके ऐसा पुत्र होगा जिसने विश्वको देख लिया है । यहाँ भविष्यत् कालके कार्यको अतीत कालमें बतलाया गया है । यह कालव्यभिचार है । उक्त प्रकारके सभी व्यभिचार शब्दनय की दृष्टिसे ठीक नहीं हैं। इस नयकी दृष्टिसे उचित लिङ्ग, संख्या आदिका ही प्रयोग करना चाहिए । यद्यपि व्याकरणशास्त्रकी दृष्टिसे उक्त प्रकारके प्रयोग होते हैं, फिर भी नयके प्रकरण में शब्दनयकी दृष्टिसे वस्तु तत्त्वका विचार किया गया है। समभिरूढ नयके अनुसार अनेक शब्दोंका एक अर्थ नहीं हो सकता है, और एक शब्द अनेक अर्थ भी नहीं हो सकते हैं । जैसे इन्द्राणीके पतिकेही इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीन नाम | किन्तु समभिरूढ नयकी दृष्टिसे इन तीनों शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न है । एक ही व्यक्ति पर - मैश्वर्यसे युक्त होनेके कारण इन्द्र, शकन ( शासन ) पर्याय से युक्त होनेके कारण शक्र और पुरदारण पर्याय से युक्त होनेके कारण पुरन्दर कहा जाता है । इसी प्रकार गो शब्दका प्रयोग गाय, वाणी, किरण आदि अनेक अर्थों में किया जाता है । किन्तु गो शब्दको गाय में रूढ होनेके कारण समभिरूढ नय गो शब्दसे गायका ही प्रतिपादन करता है । तात्पर्य यह है कि इस नयकी दृष्टिसे एक शब्दके अनेक अर्थ नहीं हो सकते हैं । अतः गाय, वाणी, किरण आदिके वाचक गो शब्द भी भिन्न भिन्न हैं । एवंभूत नयके अनुसार जो पदार्थ जिस समय जिस रूपसे परिणमन कर रहा हो उसको केवल उसी समय उस रूपसे कहना चाहिए | जैसे जब कोई पढ़ा रहा हो तभी उसे अध्यापक कहना चाहिए। और जब कोई पूजा कर रहा हो तभी उसे पुजारी कहना चाहिए । 'गच्छतीति २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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