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________________ कारिका-१०६ ] तत्त्वदीपिका ३३५ अभावमें हेतु साध्यका साधक नहीं होता है। और त्रैरूप्य या पाञ्चरूप्यके न होने पर भी केवल अन्यथानुपपत्तिके होनेसे हेतु साध्यकी सिद्धि करता है। कहा भी है अन्यथानुपनन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम ।। अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥ हेतुका विचार करके अब नयका विचार करना आवश्यक है। स्याद्वाद समग्र वस्तुको ग्रहण करता है, और नय वस्तुके एक देशको ग्रहण करता है। इसीलिए नयको स्याद्वादसे गहीत अर्थके विशेष ( एक देश या धर्म ) का व्यञ्जक कहा गया है। वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं। नय उन अनन्त धर्मोमेंसे क्रमसे एक-एक धर्मका व्यंजक होता है। 'घटः स्यान्नित्यः' यह एक नय वाक्य है। क्योंकि अनन्तधर्मात्मक घटके एक धर्म नित्यत्वको यह व्यक्त करता है। 'घटः स्यादनित्यः' यह भी एक नय वाक्य है। क्योंकि यह अनन्तधर्मात्मक घटके एक धर्म अनित्यत्वको व्यक्त करता हैं। अतः नय प्रमणसे गृहीत अर्थके एक देशको जानता है । कहा भी है अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ॥ अनेकधर्मात्मक अर्थका ज्ञान प्रमाण है, और उसके एक अंशका ज्ञान नय है। यद्यपि नय एक धर्मको ग्रहण करता है, किन्तु इसके साथ ही वह दूसरे धर्मोकी अपेक्षा भी रखता है, तथा उनका निराकरण नहीं करता है। परन्तु जो दुर्नय होता है, वह दूसरे धर्मोंका निराकरण करके एक धर्मका निरपेक्ष अस्तित्व सिद्ध करता है। घटके नित्यत्वको ग्रहण करने वाला नय यदि अनित्यत्व आदि धर्मोका निराकरण न करके उनकी अपेक्षा रखता है, तो वह सम्यक् नय है। और यदि वह अनित्यत्व आदि धर्मोंका निराकरण करता है, तो वही दुर्नय या मिथ्यानय हो जाता है। मूलमें नयके दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय । द्रव्यार्थिक नय द्रव्यको ग्रहण करता है, और पर्यायार्थिक नय पर्यायको ग्रहण करता है । नयोंके उत्तर भेद सात होते हैं-नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत । इनमेंसे नैगम आदि तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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