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________________ कारिका-१०५ ] तत्त्वदीपिका ३३१ से अनित्य है। अतः नयसापेक्ष कथन भी स्याद्वाद ही है। इस समय कौन धर्म हेय है, और कौन धर्म उपादेय है, अथवा कौन धर्म मुख्य है और कौन धर्म गौण है, इस बातको भी स्याद्वाद बतलाता है। जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय वही धर्म मुख्य या उपादेय होता है। शेष समस्त धर्म गौण या हेय हो जाते हैं। किन्तु दूसरे समयमें गौण धर्म मुख्य हो जाता है और मुख्य धर्म गौण हो जाता है। मुख्यता और गौणता 'धर्मोमें किसी गुण या दोषसे नहीं होती है, किन्तु विवक्षाभेदसे होती है। विवक्षित धर्म मुख्य होता है और शेष अविवक्षित धर्म गौण हो जाते हैं। इस प्रकार स्याद्वाद मुख्य और गौणकी विवक्षापूर्वक सात भंगों और नयोंकी अपेक्षासे अनेकान्तात्मक अर्थका प्रतिपादन करता है। उक्त कारिकामें 'नय' शब्द आया है। उसका संक्षेपमें विचार करना आवश्यक है । नयोंका विषय बहुत गंभीर और व्यापक है । प्रमाण समग्र वस्तुको विषय करता है और नय वस्तुके एक देशको विषय करता है। कहा भी है-'सकलादेशः प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः । मूल और उत्तरके भेदसे नयोंके अनेक भेद हैं। द्रव्य और पर्यायकी दृष्टिसे द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक ये दो मूल नय हैं। अध्यात्मकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार ये दो मूल नय हैं। शुद्धि और अशुद्धिकी दृष्टिसे भी नयोंके दो दो भेद किये गये हैं। जैसे शुद्ध द्रव्यार्थिक, अशुद्ध द्रव्यार्थिक, शुद्ध पर्यायार्थिक, अशुद्ध पर्यायार्थिक, शुद्ध निश्चय, अशुद्ध निश्चय, सद्भूत व्यवहार, असद्भूत व्यवहार इत्यादि । द्रव्यार्थिक नयके उत्तर भेद तीन हैं-नेगम, संग्रह और व्यवहार । पर्यायाथिकके उत्तरभेद चार हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ, और एवंभूत । इन सात नयोंमें प्रथम चार अर्थनय और शेष तीन शब्दनय कहे जाते हैं। इन सबके उत्तरोत्तर भेद असंख्य हैं। जितने शब्दभेद हैं तथा उन शब्दोंसे होनेवाले ज्ञानके जितने विकल्प हैं उतने ही नयोंके भेद हैं। इनके स्वरूप आदिका विशेष कथन 'नयचक्र' आदि ग्रन्थोंसे जानना चाहिए। स्याद्वाद और केवलज्ञानमें भेदको बतलानेके लिए आचार्य कहते हैं स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१०५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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