SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० पूरा ज्ञान हो जाता है, वहाँ एक पद ही वाक्य हो जाता है। क्योंकि वाक्यका लक्षण निराकांक्षत्व वहाँ पाया जाता है। वहाँ एक ही पदसे पूरा ज्ञान हो जाता है, और अन्य पदोंकी कोई अपेक्षा नहीं रहती है। स्याद्वादका समर्थन करनेके लिए आचार्य पुनः कहते हैं स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः। सप्तभंगनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥१०४।। सर्वथा एकान्तका त्याग करके कथंचित् विधान करनेका नाम स्याद्वाद है। वह सात भंगों और नयोंकी अपेक्षा रखता है, तथा हेय और उपादेयके भेदको भी बतलाता है। किंवृत्तचिद्विधिका अर्थ है 'किम्'से चित् प्रत्ययका विधान करनेपर बनने वाला शब्द, अर्थात् कथंचित् । कथंचित् और स्यात् ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । स्याद्वाद एकान्तका त्याग करके अनेकान्तका प्रतिपादन करता है। यहाँ अनेकान्त और स्याद्वादमें भेद समझ लेना भी आवश्यक है। यथार्थमें अर्थका नाम अनेकान्त है। एकसे अधिकका नाम अनेक है। और धर्मका नाम अन्त है। जिस पदार्थमें सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक विरोधी धर्म पाये जाते हैं, उसका नाम अनेकान्त है। अनेकान्त और स्याद्वाद ये दोनों पर्यायवाची नहीं है, किन्तु अनेकान्तवाद और स्याद्वाद पर्यायवाची हो सकते हैं। अनेक धर्मोके प्रतिपादन करनेकी शैलीका नाम स्याद्वाद है। इस प्रकार ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है कि अनेकान्त वाच्य है और स्याद्वाद वाचक है। उन अनेक धर्मोमेंसे स्याद्वाद एक समयमें एक धर्मका किसी निश्चित अपेक्षासे कथन करता है । ‘स्याद्वाद' में दो शब्द हैं-स्यात् और वाद । स्यात्का अर्थ है, कथंचित्-किसी अपेक्षासे। और वादका अर्थ है कथन । घटमें स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको अपेक्षासे अस्तित्व धर्म है, और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे नास्तित्व धर्म है, इत्यादि प्रकारसे कथन करना स्याद्वाद है। स्याद्वादमें सात मंगोंकी अपेक्षा होती है। प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे बनने वाले सात भंगोंका वर्णन पहले किया जा चुका है। इसी प्रकार स्याद्वादमें नयोंकी भी अपेक्षा होती है। जैसे 'स्यात् द्रव्यं नित्यम्, स्यादनित्यम् ।' द्रव्य कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है। यह कथन नयकी अपेक्षासे किया गया है। अर्थात् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे द्रव्य नित्य है, और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy