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कारिका-१०३] तत्त्वदीपिका
३२७ किन्तु नास्तिरूप भी है। घट सर्वथा अस्तिरूप नहीं है किन्तु कथंचित् अस्तिरूप है। इसी प्रकार घट सर्वथा नास्तिरूप नहीं है, किन्तु कथंचित् नास्तिरूप है। घटको सर्वथा अस्तिरूप मानने में वह पट आदिकी अपेक्षासे भी अस्तिरूप ही होगा। तथा सर्वथा नास्तिरूप होनेपर उसका अस्तित्व ही न रहेगा। इसलिए स्यात् शब्दका मुख्य काम है अनेकान्तका द्योतन करना । स्यात् शब्द बतलाता है कि वस्तु एकरूप नहीं है, किन्तु अनेकरूप है । वस्तुमें सत्त्वके साथ ही असत्त्व आदि अनेक धर्म रहते हैं।
स्यात् शब्दका दूसरा काम है, गम्य अर्थका समर्थन करना । ‘स्यादस्ति घट:' यहाँ घटका अस्तित्व गम्य है, और 'स्यान्नास्ति घट:' यहाँ घटका नास्तित्व गम्य है । स्यात् शब्द बतलाता है कि घटमें अस्तित्व किस अपेक्षासे है, और नास्तित्व किस अपेक्षासे है । स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे घटमें अस्तित्व है। और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे घटमें नास्तित्व है। स्यात् शब्द निश्चित अपेक्षासे गम्य अर्थका सूचक होता है। वह ऐसा नहीं कहता कि शायद घट है, शायद घट नहीं है। जो लोग स्याद्वादका अर्थ संशयवाद या संभावनावाद करते हैं वे स्यात् शब्दका ठीक अर्थ न समझनेके कारण ही वैसा करते हैं। अनेकान्तके प्रकरणमें 'स्यात्' का अर्थ न संशय है और न संभावना, किन्तु निश्चय है। 'स्यादस्त्येव घटः', यहाँ स्यातके साथ एव शब्द भी लगा हुआ है, जो बतलाता है कि घट एक निश्चित अपेक्षासे है ही। ऐसी स्थितिमें स्यातका अर्थ संशय या संभावना कैसे हो सकता है।
स्यात् शब्द निरर्थक नहीं है, किन्तु अर्थके साथ उसका सम्बन्ध है। यही कारण है कि वह अनेकान्तका द्योतन करता हुआ गम्य अर्थका समर्थन करता है। स्यात् शब्द बतलाता है कि अर्थ अनेकान्तात्मक है, और इस समय उन अनन्त धर्मोमेंसे किस धर्मका प्रतिपादन किस अपेक्षासे किया जा रहा है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि स्यात् शब्द निश्चयात्मक है, अनिश्चयात्मक या सन्देहात्मक नहीं। यह स्यात् शब्द केवलियों और श्रुतकेवलियोंको भी अभिमत है। क्योंकि इसके विना अनेकान्तरूप अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है। केवली या श्रुतकेवलीका भी वचन केवलज्ञानकी तरह सम्पूर्ण वस्तुका युगपत् अवगाहन ( प्रतिपादन ) नहीं कर सकता है। अतः स्यात् शब्दके प्रयोगके विना अनेकान्तकी प्रतिपत्ति संभव नहीं है।
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