________________
३०९
कारिका-९९]
तत्त्वदीपिका कर्मके अनुसार प्राणियोंको फल देता है। जो जैसा कर्म करता है, उसको वैसा फल मिलता है। अन्धा, लूला आदि होना यह सब कर्मका फल है। यदि ऐसा है, तो हम पूँछ सकते हैं कि ईश्वर प्राणियोंके कर्मका कारण होता है या नहीं? यदि ईश्वर प्राणियोंके कर्मका कारण होता है, तो उसको सदा पूण्य कर्मका ही कारण होना चाहिए, पाप कर्मका नहीं। कोई भी बुद्धिमान् पिता यह नहीं चाहेगा कि उसकी सन्तान कुरूप या दुश्चरित्र हो। फिर सर्वाधिक बुद्धिमान् ईश्वर अपनी सन्तानको ऐसे पाप कर्मों में प्रवृत्ति कैसे करने देता है, जिनका फल अन्धा, लला आदि होना हो। और यदि ईश्वर प्राणियोंके कर्मका कारण नहीं होता है, तो उसको शरीर, इन्द्रिय आदिका भी कारण नहीं होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान् ईश्वर द्वारा अन्धे, लूले आदि प्राणियोंकी सृष्टि नहीं होना चाहिए। यतः अन्धे, लूले आदि प्राणी देखे जाते हैं, अतः यह सुनिश्चित है कि ईश्वर न तो उनके कर्मका कारण होता है, और न उनके शरीर, इन्द्रिय आदिका कर्ता है।
इसलिए काम, क्रोध, शरीर, इन्द्रिय आदि नाना प्रकारके कार्योंका कारण कर्मको ही मानना उचित प्रतीत होता है। संसारी प्राणी अपने अपने भावोंके अनुसार कर्मका बन्ध करता रहता है, और कर्मका फल भोगता रहता है। प्राणियोंके शरीरकी रचना नामकर्मके अनुसार होती है। ईश्वर न तो शरीर आदिका कर्ता है, और न पृथिवी, पर्वत, समुद्र आदिका। क्योंकि पृथिवी आदि अनादि हैं। ऐसा नहीं है कि पहले पृथिवी आदि कुछ न हो और बादमें ईश्वरने जादूकी छड़ीसे संसारका निर्माण किया हो । क्योंकि असत्से सत्की उत्पत्ति कभी नहीं होती है। __नैयायिक अनुमान प्रमाणसे ईश्वरकी सिद्धि करते हैं । ईश्वर साधक अनुमान इस प्रकार है-'तनुकरणभुवनादयः बुद्धि मन्निमित्तकाः कार्यत्वात् घटवत्' 'शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदिका कर्ता कोई बुद्धिमान् है, क्योंकि ये कार्य हैं, जैसे घट'। यहाँ यह बात विचारणीय है कि शरीर आदिका कर्ता एक बुद्धिमान् है, या अनेक । यदि उनका कर्ता एक बुद्धिमान् है, तो अनेक बुद्धिमान् पुरुषों द्वारा निर्मित प्रासाद आदिके द्वारा कार्यत्व हेतु व्यभिचारी हो जाता है । क्योंकि प्रासादमें एक बुद्धिमत्कारणत्वके अभावमें भी कार्यत्व रहता है। यदि अनेक बुद्धिमान् पुरुषोंको शरीर आदिका कर्ता माना जाय तो ऐसा मानने में सिद्धसाधन दोष आता है। क्योंकि अपने-अपने उपभोग योग्य शरीर आदिकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org