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________________ ३०८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० अचेतन कारणोंमें स्थित्वाप्रवर्तन अर्थक्रियाकारित्व आदि चेतनसे अधिष्ठित होकर ही होते हैं, ऐसा नियम मानने में ईश्वरमें भी स्थित्वाप्रवर्तन, अर्थक्रियाकारित्व आदि नहीं हो सकते हैं। क्योंकि ईश्वर भी अचेतन है । न्यायमतके अनुसार सब आत्माएं स्वत: अचेतन हैं। उनमें जो चेतन व्यवहार होता है वह चेतनाके समवायसे होता है। अतः ईश्वर स्वतःअचेतन है। और अचेतन ईश्वरमें भी क्रमसे उत्पन्न होने वाले सब कार्यों की अपेक्षासे स्थित्वाप्रवर्तन, अर्थक्रियाकारित्व आदि होते हैं। किन्तु उक्त नियमानुसार अचेतन ईश्वरमें स्थित्वाप्रवर्तन आदि नहीं होना चाहिए । यदि अचेतन ईश्वरमें स्थित्वाप्रवर्तन आदि होता है, तो ईश्वर भी चेतनसे अधिष्ठित होकर स्थित्वाप्रवर्तन आदि करता है, ऐसा मानना पड़ेगा। यदि अचेतन ईश्वर अन्य चेतनसे अधिष्ठित हए विना ही कार्य करता है तो इस नियममें व्यभिचार आता है कि अचेतन चेतनसे अधिष्ठित होकर ही कार्य करता है। इसलिए यह मानना चाहिए कि एक ईश्वर दूसरे ईश्वरसे अधिष्ठित होकर कार्य करता है। और ऐसा मानने में अनवस्था दोषका निवारण होना असंभव है । अतः अचेतनको चेतनाधिष्ठित होकर कार्य करनेका नियम मानना युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए ईश्वर भी शरीर आदिकी उत्पत्तिमें अचेतन परमाणु आदिका अधिष्ठाता नहीं होता है। उक्त दोषोंके भयसे यदि ऐसा कहा जाय कि बुद्धिमान् होनेसे ईश्वर अन्य चेतनसे अनधिष्ठित होकर ही कार्य करने में समर्थ है, और उसको अन्य चेतनसे अधिष्ठित होनेकी आवश्यकता नहीं है । तो ऐसा कहना भी असंगत है। क्योंकि यदि ईश्वर बुद्धिमान् है, तो वह अन्धे, लूले, लंगड़े, कुबड़े आदि निकृष्ट शरीर वाले प्राणियोंको क्यों उत्पन्न करता है । ऐसा देखा जाता है कि जो अधिक ज्ञानवान् होता है, वह अपने कार्यको अधिक से अधिक सुन्दर और अच्छा बनानेका प्रयत्न करता है। एक उच्च कोटिका कलाकार यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके चित्रमें किसी प्रकारकी कोई त्रुटि रह जाय । ईश्वर केवल बुद्धिमान ही नहीं है, किन्तु सातिशय बुद्धिमान है। इसलिए सातिशय बुद्धिमान् ईश्वरका कर्तव्य है कि वह अन्धे, लूले आदि प्राणियोंको उत्पन्न न करे। और यदि वह इस प्रकारके प्राणियोंको उत्पन्न करता है, तो इसका अर्थ यही होगा कि उसका ज्ञान पूर्ण नहीं है, किन्तु अपूर्ण है। यहाँ ईश्वरवादियोंकी ओरसे यह कहा जा सकता है कि ईश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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