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________________ कारिका - ९८ ] तत्त्वदीपिका ३०१ स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति आदि माना जाय तो दृष्ट कारणमें व्यभिचार देखा जाता है । स्त्री, पुत्रादिके होने पर भी एक सुखी होता है, तो दूसरा दुःखी होता है । इसलिए दृष्ट कारणमें व्यभिचार होनेसे सुख और दुःखका अदृष्ट कारण ( कर्म ) मानना पड़ता है । ऐसा भी नहीं है कर्मबन्ध पौद्गलिक न हो, क्योंकि प्रत्येक कर्मका विपाक ( फल ) पुद्गल द्रव्यके सम्बन्ध से ही होता है । ऐसा कोई भी कर्म नहीं है जो साक्षात् अथवा परम्परासे पुद्गल के सम्बन्ध के विना फल देने में समर्थ हो । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि इष्ट और अनिष्ट फल देने में समर्थ जो कर्मबन्ध है वह पौद्गलिक है, तथा कषायसहित अज्ञानके कारण ही वह फल देता है । तात्पर्य यह है कि मोह सहित अज्ञान बन्धका कारण है, मोह रहित नहीं । यहाँ यह शंका को जा सकती है कि यदि कषायसहित अज्ञानसे ही बन्ध होता है, तो "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः " इस सूत्र के अनुसार तत्त्वार्थसूत्रकारके वचनोंमें विरोध आता है । क्योंकि सूत्रकारने कपायके साथ मिथ्यादर्शन, अविरति प्रमाद और योगको भी बन्धका कारण बतलाया है । उक्त शंका उचित ही है । यद्यपि कषाय सहित अज्ञानको बन्धका कारण माननेमें विरोध प्रतीत होता है, किन्तु सूक्ष्मरीतिसे विचार करने पर विरोधका लेश भी नहीं है । आचार्य समन्तभद्र और सूत्रकारके अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद और योगके निमित्तसे जो इष्ट और अनिष्ट फल मिलता है, वह तभी मिलता है जब मिथ्यादर्शन आदिका सद्भाव कषाय एवं अज्ञानसहित आत्मामें विद्यमान हो । आचार्य समन्तभद्रका जो वचन है, वह संक्षेप वचन है । उसके द्वारा मिथ्यादर्शन आदिका भी संग्रह हो जाता है । अत: आचार्य समन्तभद्र और सूत्रकारके वचनोंमें कोई विरोध नहीं है । इसलिए यह निर्विवाद रूपसे सिद्ध होता है कि मोह सहित अज्ञानसे बन्ध होता है, और मोह रहित अज्ञानसे बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार मोह रहित अल्प ज्ञानसे भी मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है, किन्तु मोह सहित अल्प ज्ञानसे मुक्ति नहीं मिल सकती है । मोह सहित जो ज्ञान है वह अज्ञान ही है । उससे तो कर्मबन्ध ही होगा । बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें छद्मस्थ वीतराग पुरुषमें जो उत्कृष्ट श्रुतादि ज्ञान होते हैं, यद्यपि वे क्षायोपशमिक हैं और केवलज्ञानकी अपे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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