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आप्तमीमांसा
परिच्छेद-९
कोई विरोध नहीं है । क्योंकि संक्लेश और विशुद्धिके कारण और कार्य होने से कायादि योग संक्लेशका अथवा विशुद्धिका अंग हो जाता है ।
तात्पर्य यह है कि स्व-परको सुख-दुःखकी कारणभूत कायादि क्रियाएँ यदि संक्लेशके कारण, कार्य और स्वभावरूप होती हैं, तो वे संक्लेशका अंग होनेके कारण, विषभक्षणादिरूप कायादिक्रियायोंकी तरह, प्राणियोंको अशुभ फलदायक कर्मके बन्धका कारण होती हैं । और यदि वे ही क्रियायें विशुद्धिके कारण कार्य और स्वभावरूप होती हैं, तो विशुद्धिका अंग होनेके कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादिक्रियायोंकी तरह, प्राणियोंको शुभ फलदायक कर्मके बन्धका कारण होती हैं । इस प्रकार उक्त कारिका में संक्षेप में शुभाशुभरूप पुण्य-पापकर्मों के आस्रव और बन्धका कारण सूचित किया गया है ।
इस प्रकार स्व और परमें होनेवाले सुख और दुःख कथंचित् ( विशुद्धिके अंग होने की अपेक्षासे) पुण्यास्रवके कारण होते हैं । कथंचित् ( संक्लेशके अंग होने की अपेक्षासे ) पापास्रवके कारण होते हैं । कथंचित् ( दोनोंकी क्रमशः विवक्षा से ) पुण्यास्रव और पापास्रव दोनोंके कारण होते हैं । और कथंचित् ( दोनोंकी युगपत् विवक्षासे ) अवाच्य होते हैं । इत्यादि प्रकार से स्व- परस्थ सुख और दुःखको पुण्यास्रव और पापास्रवके कारण होनेके विषय में सप्तभंगीकी प्रक्रियाको पूर्ववत् लगा लेना चाहिए ।
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