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________________ २८२ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ होनेपर भी वासनाभेदसे सब काम बन जाता है, उसी प्रकार जाग्रत् अवस्थामें वासनाके दृढ़ होनेसे संतानान्तरका जो ज्ञान होता है, वह सत्य है और स्वप्न अवस्थामें वासनाके दृढ़ न होनेसे संतानान्तरका जो ज्ञान होता है, वह है। इस प्रकार सन्तानान्तरका सद्भाव वासनाभेदसे ही मानना चाहिए, संतानान्तरके सद्भावसे नहीं। और संतानान्तरके अभावमें स्वसंतानकी भी सिद्धि नहीं हो सकती है। इसलिए ऐसा ज्ञान मानना आवश्यक है, जो अपने इष्ट तत्त्वका अवलम्बन करता हो। और इस प्रकारके ज्ञानका सद्भाव माननेपर बाह्य अर्थको अवलम्बन करनेवाले ज्ञानके सद्भावकी सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं है। यथार्थमें बाह्य अर्थके सद्भावमें ही कोई ज्ञान प्रमाण और कोई ज्ञान अप्रमाण होता है । यदि ज्ञानके द्वारा ज्ञात अर्थकी प्राप्ति होती है, तो वह प्रमाण है, और अर्थकी प्राप्तिके अभावमें वह अप्रमाण है। इस प्रकार बाह्य अर्थकी सिद्धि होने पर वक्ता, श्रोता और प्रमाताकी सिद्धि नियमसे होती है, तथा उनमें बोध, वाक्य और प्रमाकी भी सिद्धि होती है। और जीव शब्दका बाह्य अर्थ भी सिद्ध हो जाता है। इसलिए सब ज्ञान कथंचित् अभ्रान्त हैं, क्योंकि स्वसंवेदनकी अपेक्षासे सब ज्ञान प्रमाण हैं। कथंचित् भ्रान्त हैं, क्योंकि बाह्य अर्थके सद्भाव ही प्रमाणता और प्रमाणाभासता देखी जाती है। यदि बाह्य अर्थमें विसंवाद पाया जाता है तो वह ज्ञान अप्रमाण है, और अविसंवादके होने पर वह प्रमाण है। इसी प्रकार ज्ञान कथंचित् भ्रान्त और अभ्रान्त है, कथंचित् अवक्तव्य है, इत्यादि प्रकारसे पहलेकी तरह सप्तभंगीकी प्रक्रियाको लगा लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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