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________________ २८१ कारिका-८७] तत्त्वदीपिका निषेध नहीं किया जा सकता है। विज्ञानाद्वैतवादी अदृश्य अन्तरंग (ज्ञान) परमाणुओंकी सिद्धि भी दृश्य संवित्तिरूप तत्त्वसे ही करते हैं। वे जो दूषण बहिरंग परमाणुओंके मानने में देते हैं, वे दूषण अन्तरङ्ग परमाणुओंके माननेमें भी आते हैं। .. विज्ञानाद्वैतवादी बहिरंग परमाणुओंमें इस प्रकार दूषण देते हैं। एक परमाणुका दूसरे परमाणु के साथ सम्बन्ध एक देशसे होता है, या सर्व देशसे । यदि एक देशसे होता है, तो पूर्व आदि छह दिशाओंसे छह परमाणुओंका सम्बन्ध एक परमाणुके साथ होनेपर उसमें छह अंश मानना पड़ेंगे, किन्तु परमाणुको निरंश माना गया है । और यदि परमाणुओंका सम्बन्ध सर्व देशसे होता है, तो अनेक परमाणुओंका समूह भी अणुमात्र हो रहेगा। क्योंकि सर्व देशसे सम्बन्धके कारण सब परमाणु अणुरूप ही हो जायगे । इसी प्रकार परमाणुओंके प्रचय (स्कन्ध)के विषयमें भी विकल्प होते हैं । परमाणुओंका जो प्रचय है, उसको परमाणुओंसे भिन्न माननेपर वह एक देशसे परमाणुअमें रहेगा या सर्व देशसे । एक देशसे रहनेपर प्रचयको अंश सहित मानना पड़ेगा तथा शेष अंशोंके रहनेके लिए अन्य अन्य परमाणुओंकी कल्पना करना पड़ेगी। और सर्व देशसे रहनेपर जितने परमाणु हैं उतने ही प्रचय या समूह मानना पड़ेंगे। इत्यादि प्रकारसे बहिरंग परमाणुओंके मानने में जो दूषण दिया जाता है, वह दूषण अन्तरंग परमाणुओंके मानने में भी समानरूपसे आता है। और अन्तरंग परमाणुओंके विषयमें दोषोंका जो परिहार किया जाता है, वह बहिरंग परमाणुओंके विषयमें भी किया जा सकता है । इसलिए ज्ञान अपनेसे भिन्न अर्थको ग्रहण करता है, क्योंकि वह ग्राह्याकार और ग्राहकाकार है। जिस प्रकार व्यापार और व्याहारके प्रतिभाससे सन्तानान्तरकी सिद्धि की जाती है, उसी प्रकार ग्राह्याकार और ग्राहकाकारके प्रतिभाससे ज्ञानसे भिन्न अर्थकी सिद्धि भी होती है। यह कहना ठीक नहीं है कि ज्ञानमें ग्राह्याकार और ग्राहकाकारका प्रतिभास वासनाभेदसे होता है, बाह्य अर्थके सद्भावसे नहीं। क्योंकि फिर संतानान्तरका प्रतिभास भी वासनाभेदसे ही मानना पड़ेगा, संतानान्तरके सद्भावसे नहीं । हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार जाग्रत् अवस्थामें बाह्य अर्थकी वासनाके दृढ़ होनेसे बहिराकार जो ज्ञान होता है, वह सत्य माना जाता है, और स्वप्न अवस्थामें बाह्य अर्थकी वासनाके दढ़ न होनेसे जो ज्ञान होता है, वह असत्य माना जाता है, अर्थात् बाह्य अर्थका सद्भाव न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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