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________________ २७८ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-७ वक्तृश्रोतृप्रमातृणां बोधवाक्यप्रमाः पृथक् । भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्यार्थी तादृशेतरौ ॥८६॥ वक्ता, श्रोता और प्रमाताको जो बोध, वाक्य और प्रमा होते हैं वे सब पृथक्-पृथक् व्यवस्थित हैं । प्रमाणके भ्रान्त होने पर अन्तर्जेय और बहिर्शेयरूप बाह्य अर्थ भी भ्रान्त ही होंगे। पहले वक्ता वाक्यका उच्चारण करता है, बादमें श्रोताको वाक्यार्थका बोध होता है । तदनन्दर प्रमाताको प्रमिति होती है। यदि वक्ताको अभिधेयका ज्ञान न हो तो वाक्यकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि वाक्यकी प्रवृत्तिका कारण अभिधेयका बोध ही है। वाक्यके अभावमें श्रोताको भी अभिधेयका ज्ञान नहीं हो सकता है। और यदि प्रमाताको प्रमिति न हो तो प्रमेयको सिद्धि नहीं हो सकती है । वक्ता आदि एवं वाक्य आदिके अभावमें विज्ञानाद्वैतवादी भी अपने इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं कर सकता है। इसलिए वक्ता, वाक्य आदिका सद्भाव मानना आवश्यक है। अतः संज्ञात्व हेतु असिद्ध नहीं है, और दृष्टान्त भो साधनविकल नहीं है। __ यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी पुनः कह सकता है कि बाह्य अर्थका अभाव होनेसे वक्ता आदि बुद्धिसे पृथक् नहीं हैं, किन्तु बुद्धिरूप ही हैं। क्योंकि वक्ता आदिके आकाररूप बुद्धिमें ही वक्ता आदिका व्यवहार होता है, बोधके अतिरिक्त वाक्यका भी कोई अस्तित्व नहीं है, और प्रमा तो बोधरूप है ही। अतः हेतुमें असिद्धता और दृष्टान्तमें साधनविकलता बनी ही रहती है। _ विज्ञानाद्वैतवादीका उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी रूपादि अभिधेयको तथा इसके ग्राहक वक्ता और श्रोताको मिथ्या मानता है। और इन सबसे पृथक् विज्ञानसन्तानको सत्य मानता है । तथा स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानको प्रमाण मानता है। यदि रूपादि अभिधेय और उसके ग्राहक वक्ता तथा श्रोता मिथ्या हैं, तो इन सबसे पृथक् विज्ञानसन्तानकी सिद्धि भी नहीं हो सकती है। विज्ञानको स्वांशमात्रावलम्बी होनेके कारण विज्ञानसन्तानके अनेक अंशोंमें परस्परमें संचार (गमकत्व) न होनेसे अभिधान ज्ञान और अभिधेय ज्ञानका भेद भी नहीं बन सकता है। और स्वांशमात्रावलम्बी ज्ञानको भी यदि विभ्रमरूप माना जाय तो प्रमाणरूप ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो सकती है। क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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