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________________ कारिका-८५ ] तत्त्वदीपिका २७७ होती है, उसका बाह्य अर्थ पाया जाता है । यतः शब्दवाचक और बुद्धिवाचक जीव संज्ञाका कोई बाह्य अर्थ नहीं है । अतः संज्ञात्व हेतु व्यभिचारी है । उसके द्वारा बाह्य अर्थकी सिद्धि नहीं हो सकती है। ___ मीमांसक का उक्त कथन अविचारित एवं अयुक्त है। ऐसा नहीं है कि जीव संज्ञा जीव-अर्थकी ही वाचक हो, किन्तु वह जीव-शब्द और जीव-बुद्धिकी भी वाचक है। जीव-बुद्धि संज्ञा जीव-बुद्धिकी वाचक है, जीव-शब्द संज्ञा जीव-शब्दकी वाचक है, और जीव-अर्थ संज्ञा जोव-अर्थकी वाचक है। प्रत्येक संज्ञा अपनेसे भिन्न अर्थकी वाचक होती है। जिस शब्दके उच्चारण करनेसे जिस पदार्थका बोध होता है, वह पदार्थ नियमसे उस शब्दका वाच्य होता है। जिस प्रकार 'जीवो न हन्तव्यः', 'जीवको नहीं मारना चाहिए' यहाँ अर्थ-वाचक जीव शब्दसे जीव-अर्शका प्रतिबिम्बक बोध होता है, उसी प्रकार 'जीव इति बुध्यते' किसीने 'जीव' ऐसा जाना, तो यहाँ बुद्धि-वाचक जीव शब्दसे जीव-बुद्धिका प्रतिबिम्बक बोध होता है, और 'जीव इत्याह' किसीने 'जीव' ऐसा कहा, तो यहाँ शब्द वाचक जीव शब्दसे जीव-शब्दका प्रतिबिम्बक बोध होता है। तीन संज्ञाओंके द्वारा तीन प्रकारका अर्थ जाना जाता है, और उनके प्रतिबिम्ब स्वरूप बोध भी तीन प्रकारका होता है। जीव-अर्थके ज्ञानमें जीव-अर्थका प्रतिबिम्ब रहता है, जीव-शब्दके ज्ञानमें जीव-शब्दका प्रतिबिम्ब रहता है, और जीव-बुद्धिके ज्ञानमें जीव-बुद्धिका प्रतिबिम्ब रहता है। अतः संज्ञात्व हेतु व्यभिचारी नहीं है। उसके द्वारा जीव अर्थकी सिद्धि नियमसे होती है। यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी कहता है कि विज्ञानके अतिरिक्त संज्ञाका कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिये संज्ञात्व हेतु असिद्ध है। 'हेतु शब्द' का जो दृष्टान्त दिया गया है वह भी साधनविकल है, क्योंकि हेत्वाकार ज्ञानको छोड़कर अन्य कोई हेतु शब्द नहीं है। यदि संज्ञात्वको हेतु न मानकर संज्ञाभासज्ञानको हेतु माना जाय अर्थात् 'जीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञाभासज्ञानत्वात्' 'जीव शब्द बाह्य अर्थ सहित है, संज्ञाभास (शब्दाकार) ज्ञान होनेसे', ऐसा कहा जाय, तो यह हेतु शब्दाभास स्वप्नज्ञानके साथ व्यभिचारी है। क्योंकि स्वप्नमें शब्दाभास ज्ञानके होने पर भी बाह्य अर्थका अभाव है। इस मतका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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