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________________ प्रस्तावना इसका आप्तमीमांसालंकार, आप्तमीमांसालंकृति, देवागमालंकार और देवागमालंकृति इन नामोंसे भी उल्लेख किया गया है। प्रत्येक परिच्छेदके अन्तमें जो पुष्पिकावाक्य आते हैं उनमें इसका नाम आप्तमीमांसालुकृति दिया है। द्वितीय परिच्छेदके प्रारम्भमें व्याख्याकारने जो पद्य दिया है उसमें इसका नाम 'अष्टसहस्री' कहा है। संभवतः आठ हजार श्लोक प्रमाण रचना होनेसे इसका नाम अष्टसहस्री हुआ है। आप्तपरीक्षामें इसे देवागमालंकृति और देवागमालंकार भी कहा है । यह व्याख्या अत्यन्त विस्तृत और प्रमेयबहुल है। इसमें अष्टशतीको आत्मसात् कर लिया गया है । मुद्रित अष्टसहस्री में यदि कोई भेद सूचक चिह्न न रखा जाय तो पृथक्से अष्टशतीकी पहिचान होना कठिन है । अष्टसहस्रीके विना अष्टशतीका गूढ़ रहस्य सभझमें नहीं आसकता है । इन व्याख्याओंके अतिरिक्त अष्टसहस्रीपर लघु समन्तभद्र ( विक्रमकी १३वीं शताब्दी ) ने 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटिप्पण', और श्वेताम्बर विद्वान् यशोविजय ( १८वीं शताब्दी ) ने 'अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण' नामक टीकाएँ लिखी हैं, जो अष्टसहस्रीके गूढ़ पदों, वाक्यों और स्थलों का स्पष्टीकरण करती हैं। ३. आप्तमीमांसावृत्ति'-यह आप्तमीमांसाकी अल्प परिमाणकी व्याख्या है। यह न तो अष्टशतीके समान गूढ़ है और न अष्टसहस्रीके समान विशाल और गम्भीर है। इसके रचयिता आचार्य वसुनन्दि हैं । इन्होंने वृत्तिके अन्तमें स्वयं लिखा है कि मैंने अपने उपकारके लिए ही इस देवागमका संक्षिप्त विवरण लिखा है। आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके अन्तमें अकलंकदेवके समाप्ति १. इत्याप्तमीमांसालंकृतौ प्रथमः परिच्छेदः । २. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानः । विज्ञायते ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥ अष्टस० पृ० १९७ ३. आप्तपरीक्षा पृ० २३३, २६२ ४. सनातन जैन ग्रन्थमाला काशीसे सन् १९१४में अकलंकदेवकी अष्टशतीके साथ आचार्य वसुनन्दिकी वृत्तिका प्रकाशन हुआ था। ५. श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्राचार्यस्य देवागमाख्याः कृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन वसुनन्दिना जडमतिना आत्मोपकाराय ।। आप्तमीमांसावृत्ति पृ० ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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