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________________ षष्ट परिच्छेद उपेय तत्त्वकी व्यवस्था करके उपाय तत्त्वकी व्यवस्था बतलानेके प्रसंगमें हेतुसिद्ध और आगमसिद्ध एकान्तोंकी सदोषता बतलानेके लिये आचार्य कहते हैं सिद्धं चेद्धेतुतः सर्वं न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं चेदागमात् सर्वं विरुद्धार्थमतान्यपि ॥७६॥ यदि हेतुसे सबकी सिद्धि होती है, तो प्रत्यक्ष आदिसे पदार्थोंका ज्ञान नहीं होना चाहिए। और यदि आगमसे सबकी सिद्धि होती है, तो परस्परविरुद्ध अर्थके प्रतिपादक मतोंकी भी सिद्धि हो जायगी। ____लौकिक और परीक्षक पुरुष पहले उपेय तत्त्वकी व्यवस्था करके बादमें उपाय तत्त्वकी व्यवस्था करते हैं । कृषि-कार्यमें प्रवृत्ति करनेवाले कृषकको कृषिजन्य धान्य आदि उपेयका जब निश्चय हो जाता है तभी वह खेतको जोतने आदि उपायोंमें प्रवृत्ति करता है। मोक्षार्थी पुरुष मोक्षके उपाय सम्यग्दर्शनादिमें तभी प्रवृत्ति करते हैं, जब उनको उपेय तत्त्व मोक्षकी निश्चित व्यवस्थाका अनुभव हो जाता है। जिनके यहाँ मोक्ष तत्त्वकी व्यवस्था नहीं है उनको उसके उपाय खोजनेकी भी कोई आवश्यकता नहीं है । चार्वाक मोक्षको नहीं मानते हैं, तो उनके मतमें मोक्षके उपायोंकी भी कोई व्यवस्था नहीं है। प्रमाणके विषयभूत द्रव्य, गुण आदि पदार्थ उपेय कहलाते हैं, और उनके जानने वाले प्रमाणको उपाय कहते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि हेतुसे ही सब तत्त्वोंकी सिद्धि होती है। युक्तिसे जिस वस्तुकी सिद्धि नहीं होती है उसको वे देखकर भी माननेको तैयार नहीं हैं। यहाँ तक कि वे प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभासकी व्यवस्था भी अनुमानसे करते हैं। यह प्रत्यक्ष है, और यह प्रत्यक्षाभास है, इसका निर्णय प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है, किन्तु इसका निर्णय अनुमानसे ही होता है। क्योंकि अर्थ और अनर्थका विवेचन अनुमानके ही आश्रित है। यदि अर्थ और अनर्थका विवेचन प्रत्यक्षके आश्रित माना जाय तो ऐसा मानने में संकर, व्यतिकर आदि दोषोंकी संभावना रहेगी। अत: अनुमानसे जो वस्तु सिद्ध हो वही ठीक है, अन्य नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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