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________________ २४६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-४ तो कोई प्रमाण है और न कोई युक्ति है। इसलिए द्रव्य और पर्यायको सर्वथा भिन्न तथा सर्वथा अभिन्न न मानकर कथंचित् भिन्न और कथंचित अभिन्न मानना ही श्रेयस्कर है। द्रव्य और पर्यायमें अभेदसाधक हेतुको बतलाकर अब भेदसाधक हेतुओंको बतलाते हैं। द्रव्य और पर्याय भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि उनके परिणमनमें विशेषता पायी जाती है। द्रव्यमें अनादि और अनन्तरूपसे स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । और पर्यायोंका जो परिणमन होता है, वह सादि और सान्त होता है । द्रव्य शक्तिमान् है, और पर्याय शक्तिरूप हैं । एक की द्रव्य संज्ञा ( नाम ) है, और दूसरेकी पर्याय संज्ञा है। द्रव्य एक है, पर्याय अनेक हैं, द्रव्यका लक्षण दूसरा है, और पर्यायका लक्षण दुसरा है। द्रव्यका प्रयोजन अन्वयज्ञानादि कराना है, और पर्यायोंका प्रयोजन व्यतिरेकज्ञानादि करना है। द्रव्य त्रिकालगोचर होता है, और पर्याय वर्तमानकालगोचर होती है । इत्यादि कारणोंसे द्रव्य और पर्याय कथंचित् नाना हैं । उक्त हेतुओं में भिन्न लक्षणत्व प्रमुख हेतु है । द्रव्यका लक्षण है-'गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ।' जिसमें गुण और पर्यायें पायी जावें वह द्रव्य है। द्रव्य आश्रय है, गुण और पर्याय आश्रयी है । द्रव्यका दूसरा लक्षण भी है—'सद्रव्यलक्षणम् ।' द्रव्यका लक्षण सत् है । अर्थात् जिसमें सत्त्व पाया जाय वह द्रव्य है। जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाय वह सत् कहलाता है। द्रव्यमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है। उत्पाद और व्यय द्रव्यकी पर्यायें ही हैं। पर्यायका लक्षण है-'तद्भावः परिणामः ।' द्रव्यका जो परिणमन होता है, उसीका नाम परिणाम या पर्याय है। गुणका लक्षण है-'द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ।' जो द्रव्यके आश्रित हों और गुण रहित हों वे गुण कहलाते हैं । गुण सहभावी होते हैं, और पर्यायें क्रमभावी। इस प्रकार द्रव्य और पर्यायका लक्षण भिन्न-भिन्न है। इसलिए लक्षणभेदके कारण द्रव्य और पर्यायमें नानात्वका सद्भाव मानना युक्तिसंगत है । ऐसा नहीं हो सकता है कि द्रव्य और पर्यायमें लक्षण भेद तो हो, किन्तु नानात्व न हो । विरोधी धर्मोके पाये जानेसे तथा निर्बाध प्रतिभासभेदके होनेसे वस्तुके स्वभावमें भेद मानना आवश्यक है। यदि ऐसा न माना जाय तो संसारके सब पदार्थोंको भी एक मानना पड़ेगा। उक्त कथनका फलितार्थ यह है कि लक्षणभेद आदिके कारण द्रव्य और पर्याय कथंचित् नाना हैं, और अशक्यविवेचनके कारण कथंचित् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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