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________________ २४० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-४ समवाय मानना व्यर्थ है। यदि स्वरूप सत् होनेपर भी द्रव्यादिकमें सत्ताका समवाय माना जाता है, तो फिर सामान्यादिकमें भी सत्ताका समवाय मानना चाहिए। जब द्रव्य, गुण और कमसे सत्ता सर्वथा भिन्न एवं असंबद्ध है, तो द्रव्यादिक में ही सत् प्रत्यय क्यों होता है, और कूर्मरोमादिकमें क्यों नहीं होता है । समवाय द्रव्यादिकमें सत्ताका सम्बन्ध नहीं करा सकता है। क्योंकि सत्ता, समवाय और द्रव्यादिक सब पृथक्-पृथक् हैं। जब तक समवायका द्रव्य और सत्ताके साथ सम्बन्ध नहीं होगा तब तक सत्ताका द्रव्यके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है। कोई भी सम्बन्ध अपने सम्बन्धियोंसे असम्बद्ध रहकर उनका सम्बन्ध नहीं कहला सकता है। द्रव्यादिकसे पृथक् सत्ता अवस्तु है, और सत्तासे पृथक् द्रव्यादिक अवस्तु हैं। यही बात समवायके विषयमें है। समवायके अभावमें कार्यकारण, गुण-गुणी आदिमें कार्यकारणभाव आदि मानना उचित नहीं है। क्योंकि खपुष्पके समान असत् समवाय कार्य-कारण आदिका परस्परमें सम्बन्ध करानेमें समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिए कार्य-कारण, गुणगुणी आदिमें भेदैकान्त मानना ठीक नहीं है । ___ यहाँ कोई (वैशेषिक विशेष) कहता है कि कार्य-कारण आदिमें अन्यतैकान्तकी सिद्धि न होनेसे कोई हानि नहीं है। क्योंकि परमाणुओंके नित्य होनेके कारण सब अवस्थाओंमें अन्यत्वका अभाव होनेसे परमाणुओंमें अनन्यतैकान्त है। इस मतका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं अनन्यतैकान्तेऽणनां संघातेऽपि विभागवत् । असंहतत्वं स्याङ्गतचतुष्कं भ्रांतिरेव सा ॥६७॥ अनन्यतैकान्तमें परमाणुओंका संघात होनेपर भी विभागके समान अन्यत्व ही रहेगा। और ऐसा होनेपर पृथिवी आदि चार भूत भ्रान्त ही होंगे। जो लोग परमाणुओंको सर्वथा नित्य मानते हैं, और कहते हैं कि संयोग होनेपर भी उनमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता है, उनका ऐसा मत अनन्यतैकान्त है । इसका अर्थ है कि परमाणु सदा अनन्य रहते हैं, और कभी भी अन्य नहीं होते हैं; वे जिस अवस्थामें हैं, उसी अवस्थामें रहते हैं, उस अवस्थाको छोड़कर दूसरी अवस्थाको प्राप्त नहीं होते हैं। इस मतमें सबसे बड़ा दोष यह आता है कि जिस प्रकार विभाग अवस्थामें परमाणु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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