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________________ कारिका - ६६ ] तत्त्वदीपिका २३९ सत्तासे पटकी सत्ता भिन्न है । इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थकी सत्ता भिन्नभिन्न है | यही सत्ताविशेष है । सामान्य और विशेष परस्पर सापेक्ष होकर ही अर्थक्रिया करते हैं । सामान्य और समवाय इन दोनों पदार्थोंका नित्य व्यक्तियों में सत्त्व सिद्ध होनेपर भी अनित्य व्यक्तियोंमें उनका सद्भाव सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार वैशेषिकने जिस प्रकारके सामान्य और समवायकी कल्पनाकी है, वह ठीक नहीं है । सामान्य और समवाय के विषयमें दूषणान्तर बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं ――― सर्वथानभिसम्बन्धः सामान्यसमवाययोः । ताभ्यामर्थो न सम्बद्धस्तानि त्रीणि खपुष्पवत् ॥ ६६॥ सामान्य और समवायका परस्पर में किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं है । सामान्य और समवायके साथ पदार्थका भी सम्बन्ध नहीं हैं । अतः सामान्य, समवाय और पदार्थ ये तीनों ही आकाशपुष्पके समान अवस्तु हैं । इस कारिकामें इस बातका विचार किया गया है कि सामान्य, समवाय और अर्थ इनका परस्पर में सम्बन्ध हो सकता है या नहीं । सामान्य और समवायका परस्परमें सम्बन्ध संभव नहीं है । क्योंकि सामान्य और समवायका सम्बन्ध करानेवाला अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है । संयोग द्रव्योंमें ही होता है, इसलिए सामान्य और समवाय में संयोग सम्बन्ध नहीं हो सकता है । समवायमें समवाय नहीं रहता है, अतः सामान्य और समवाय में समवाय सम्बन्ध नहीं है । परस्पर में असम्बद्ध सामान्य और समवायके साथ अर्थका सम्बन्ध होना भी संभव नहीं है । और अर्थमें सत्ताका समवाय न होनेसे अर्थका असत्त्व स्वतः सिद्ध है । परस्परमें असम्बद्ध सामान्य और समवाय भी असत् ही हैं । इस प्रकार पर - स्परमें असम्बद्ध अर्थ आदि तीनों कूर्म रोमके समान अवस्तु सिद्ध होते हैं । वैशेषिकका कहना है कि परस्परमें असम्बद्ध भी सामान्य, समवाय और अर्थ असत् नहीं हैं । उनमें स्वरूपसत्त्व पाया जाता है, इसलिए स्वरूप सत्त्वके कारण वे सत् हैं । कूर्मरोम आदिमें स्वरूप सत्त्व न होनेसे उनका दृष्टान्त ठीक नहीं है । वैशेषिकका उक्त कथन असंगत ही है । यदि द्रव्य, गुण और कर्म में स्वरूपसत्त्व रहता है, तो फिर उनमें सत्ताका समवाय मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार सामान्य, विशेष और समवाय के स्वरूपसत् होनेसे उनमें सत्ताका समवाय नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यादिकके भी स्वरूपसत् होनेसे उनमें भी सत्ताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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