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२३६ आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-४ सम्बन्धसे अवयवी अवयवोंमें, गुण गुणीमें, कार्य कारणमें, सामान्य सामान्यवान्में और विशेष विशेषवान्में रहता है। जिनमें समवाय सम्बन्ध पाया जाता है वे समवायी कहलाते हैं। जैसे अवयव और अवयवी समवायी हैं । समवायियोंमें आश्रय-आश्रयीभाव होता है। अवयव आश्रय है, और अवयवी आश्रयी है। समवाय सम्बन्धसे पट तन्तुओं में रहता है। वैशेषिकका कहना है कि समवायियोंके सर्वथा भिन्न होने पर भी उनमें आश्रय-आश्रयी भाव होनेके कारण उन्हें भिन्न-भिन्न देशमें रहनेकी स्वतंत्रता नहीं है । यही कारण है कि उनमें देशभेद और कालभेद सम्भव नहीं है। अवयव और अवयवी पृथक् पृथक् हैं और समवायके द्वारा उनका परस्परमें सम्बन्ध होता है। ___यहाँ प्रश्न यह है, कि समवाय अपने समवायियोंमें अन्य समवायसे रहता है या स्वतः । यदि समवाय अपने समवायियोंमें दूसरे समवायसे रहता है, तो उस समवायका सम्बन्ध भी समवायियोंके साथ तीसरे समवायसे होगा। इस प्रकार अनवस्था दोषका प्रसंग उपस्थित होता है। इस दोषके भयसे यदि ऐसा माना जाय कि समवाय समवायियोंमें अन्य सम्बन्धकी अपेक्षाके विना स्वत: रहता है, तो अवयवी भी अपने अवयवोंमें समवायकी अपेक्षाके विना स्वतः रहेगा । तब समवाय सम्बन्ध माननेकी कोई आवश्यकता नहीं हैं। यदि यह कहा जाय कि समवाय अनाश्रित होनेसे अन्य सम्बन्धकी अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु असम्बद्ध ही रहता है, तो ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योंकि जो स्वयं समवायिकोंके साथ असम्बद्ध है, वह अवयवोंका अवयवीके साथ सम्बन्ध कैसे करा सकता है। यदि असम्बद्ध पदार्थमें भी सम्बन्धकी कल्पनाकी जाय तो दिशा, काल आदिको भी सम्बन्ध मानना चाहिए । इस प्रकार यह निश्चित है कि समवायका अपने समवायियोंके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता है। अतः सत्तासामान्यकी कल्पनाकी तरह समवायकी कल्पना भी व्यर्थ है । प्रत्येक पदार्थ स्वत: सत् होता है। असत् पदार्थ सत्तासामान्यके योगसे कभी भी सत् नहीं हो सकता है। अन्यथा वन्ध्यापुत्र भी सत् हो जायगा। और जो स्वतः सत् है उसमें सत्तासामान्यकी कल्पना व्यर्थ ही है। इसलिए यह ठीक ही कहा है कि समवायियोंसे अयुक्त (असम्बद्ध ) समवायको सम्बन्ध मानना युक्त नहीं है। सामान्य और समवायका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैंसामान्यं समवायाश्चाप्येकैकत्र समाप्तितः । अन्तरेणाश्रयं न स्यान्नाशोत्पादिषु को विधिः ॥६५॥
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