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________________ २२८ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद ३ 1 है । क्योंकि पुरुष और सुखादिकी तरह उत्पाद और विनाशमें जाति, संख्या आदिकी अभेदरूपसे स्थिति रहती है। सत्त्व, द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जातिरूप होनेसे, एक संख्यारूप होनेसे तथा उत्पाद - विनाशरूप शक्तिविशेषका अन्वय होनेसे उत्पाद और विनाश कथंचित् अभिन्न हैं । पृथिवी द्रव्यको छोड़कर घटका अन्य कोई नाश और उत्पाद नहीं है । मिट्टी ही घटरूपसे नष्ट होकर कपालरूपसे उत्पन्न हो जाती है । अतः मिट्टीरूप द्रव्यकी अपेक्षासे उत्पाद और विनाश अभिन्न हैं । द्रव्यको अपेक्षासे उत्पाद और विनाशमें एकत्व संख्याकी उपलब्धि होती है । उनमें एक शक्तिविशेष भी पायी जाती है । इन कारणोंसे उत्पाद और विनाश अभिन्न हैं । जैसे 'मैं ही सुखी था और में ही दुःखी हूँ' ऐसी प्रतीति होनेसे सुख, दुःखादिसे अभिन्न पुरुषकी सिद्धि होती । इस प्रकार उत्पाद और विनाश कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं । इसी प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी कथंचित् भिन्न और कथं - चित् अभिन्न हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य कथंचित् भिन्न हैं, क्योंकि इनकी भिन्न-भिन्न रूपसे प्रतीति होती है । जैसे एक फलमें रूपादिकी भिन्न-भिन्न प्रतीति होती है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य कथंचित् अभिन्न भी हैं, क्योंकि वस्तुसे ये तीनों अपृथक् हैं, अथवा इन तीनोंकी अभिन्नता या समुदायका नाम ही वस्तु है । परस्पर सापेक्ष होकर ही उत्पाद, और धौव्य अर्थक्रिया करते हैं । व्यय और ध्रौव्यसे रहित उत्पाद, व्यय और उत्पाद से रहित ध्रौव्य, तथा उत्पाद और धौव्यसे रहित विनाशकी कल्पना गगनकुसुमकी कल्पनाके समान ही है । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके समूहका नाम ही सत् या द्रव्य है । और तीनोंमें से एक के भी अभाव में सत्त्व संभव नही है । व्यय वस्तुके उत्पाद और विनाश एक हेतुक होनेसे अभिन्न हैं । घटके विनाश और कपालकी उत्पत्तिका हेतु मुद्गर होता है । नैयायिकवैशेषिक मानते हैं कि उत्पाद और विनाश के हेतु भिन्न हैं । घट में मुद्गरके आघातसे घटके अवयवोंमें क्रिया उत्पन्न होती है, उस क्रियासे घटके अवयवोंका विभाग होता है, अवयव विभागसे घटके अवयवोंके संयोगका नाश होता है, इसके अनन्तर घटका विनाश हो जाता है । यह तो हुआ घटके विनाशका क्रम । पुनः परमाणुओंमें क्रिया होनेसे द्वणुक आदिकी उत्पत्ति के क्रमसे अवयवोंकी उत्पत्ति होती है । यह कपालकी उत्पत्तिका क्रम है । नैयायिक - वैशेषिक द्वारा माना गया उत्पत्ति और विनाशका उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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