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कारिका - ५८ ]
तत्त्वदीपिका
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रूप परिणमन करनेका एक विशेष प्रकारका स्वभाव है। मिट्टी सत्त्व स्वभावसे घटरूप परिणमन नहीं करती है, और न पृथिवीत्व स्वभावसे ही घटरूप परिणमन करती है, अन्यथा तन्तुको भी घटरूप परिणमन करना चाहिए | क्योंकि सत्त्व और पुथिवीत्व तो उसमें भी पाया जाता है । इसलिए प्रत्येक पदार्थमें परिणमन करनेका पृथक्-पृथक् स्वभाव होता है, और प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप है ।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं, इस बातको सिद्ध करनेके लिए आचार्य कहते हैं
कार्योत्पादः क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात् पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत् ||५८ ||
एक हेतुका नियम होनेसे हेतुके क्षय होनेका नाम ही कार्यका उत्पाद है । उत्पाद और विनाश लक्षणकी अपेक्षासे पृथक्-पृथक् हैं । और जाति के अवस्थानके कारण उनमें कोई भेद नहीं है । परस्पर निरपेक्ष उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाशपुष्प के समान अवस्तु हैं ।
उपादान कारणका क्षय होनेपर कार्य की उत्पत्ति होती है । उपादान कारणका क्षय निरन्वय नहीं होता, किन्तु उपादान कारण पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्यायको धारण कर लेता है । उत्पाद और विनाश परस्पर में अविनाभावी हैं। उत्पाद और विनाश दोनोंमें एक हेतुका नियम है। जो कार्यके उत्पादका हेतु होता है, वही उपादानके विनाशका हेतु है | अतः उपादान (मिट्टी ) का क्षय ही उपादेय (घट) का उत्पाद है । इससे यह सिद्ध होता है कि उत्पाद और विनाश दोनों सहेतुक हैं । एक को सहेतुक और दूसरेको निर्हेतुक मानना प्रतीतिविरुद्ध है । दोनों के हेतुको अभिन्न होनेसे दोनोंमें सर्वथा अभेद मानना ठीक नहीं है । क्योंकि उत्पाद और विनाशके लक्षण भिन्न-भिन्न होने से उन दोनोंमें कथंचित् भेद है । कार्यके उत्पादका लक्षण है- स्वरूपका लाभ करना । और कारणके विनाशका लक्षण है— स्वरूपकी प्रच्युति हो जाना । अतः सुख, दुःखादिकी तरह भिन्न-भिन्न लक्षण पाये जानेके कारण उत्पाद और विनाश कथंचित् भिन्न हैं । पुरुषमें सुख, दुःख आदि पर्यायें पायी जाती हैं। उन सब पर्यायोंका स्वरूप भिन्न-भिन्न होनेसे वे पर्यायें कथंचित् भिन्न हैं। उत्पाद और विनाशमें कथंचित् भेदकी तरह कथंचित् अभेद भी
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