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कारिका - ५७ ]
तत्त्वदीपिका
है । वहाँ नित्यत्वकी सिद्धिसे प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि और प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धिसे नित्यत्वकी सिद्धि नहीं होती है । वहाँ तो भेदज्ञानसे भेदकी सिद्धि और अभेदज्ञानसे अभेदकी सिद्धि होती है । यदि पदार्थकी स्थिति के अनुभवको विभ्रम कहा जाय तो उत्पत्ति और विनाश भी विभ्रम ही होंगे। जो स्थितिके विना उत्पाद और विनाशकी कल्पना करते हैं उनकी कल्पना भी प्रतीतिविरुद्ध होनेसे कल्पनामात्र है ।
जिस प्रकार सर्वथा क्षणिकैकान्तमें प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है, उसी प्रकार सर्वथा नित्यैकान्त में भी प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है । सर्वथा नित्य पदार्थ में कोई स्वभावभेद नहीं हो सकता है, और स्वभावभेदके विना पूर्व और उत्तर पर्यायका संकलन भी नहीं हो सकता है । इसलिये पदार्थको कथंचित् नित्य मानना आवश्यक है । इसी प्रकार उसे कथंचित् क्षणिक मानना भी आवश्यक है । इस प्रकार सर्वथा क्षणिक पक्षमें अथवा सर्वथा नित्यपक्ष में ज्ञानका संचार नहीं हो सकता है । अर्थात् सर्वथा क्षणिक और सर्वथा नित्य वस्तु ज्ञानका विषय नहीं हो सकती है । अतः वस्तुको अनेकान्तात्मक मानना आवश्यक है । वस्तुको अनेकान्तात्मक मानने में विरोध, वैयधिकरण्य, संकर आदि दोष नहीं आते हैं, इस ant पहले ही बतलाया जा चुका है ।
वस्तु उत्पाद, व्यय और धौव्यको सिद्ध करनेके लिये आचार्य कहते हैं
न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ।
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व्येत्युदेति
विशेषात्ते स कत्रोदयादि सत् ||५७ ||
हे भगवन् ! आपके शासनमें वस्तु सामान्यकी अपेक्षासे न उत्पन्न होती है, और न नष्ट होती है । यह बात स्पष्ट है, क्योंकि सब पर्यायोंमें उसका अन्वय पाया जाता है । तथा विशेषकी अपेक्षासे वस्तु नष्ट और उत्पन्न होती है । एक साथ एक वस्तुमें उत्पाद आदि तीनका होना ही सत् है ।
यह बात सबको अनुभव सिद्ध है कि द्रव्यकी अपेक्षासे पदार्थका उत्पाद और विनाश नहीं होता है । केवल उसकी पर्यायें बदलती रहती हैं । मिट्टीका पिण्ड बनता है, पुनः स्थास, कोश, कुसूल आदि पर्यायोंकी उत्पत्ति के अनन्तर घटकी उत्पत्ति होती है । और घटके फूटने पर कपाल उत्पन्न हो जाते हैं । इन सब पर्यायोंमें मिट्टीका अन्वय पाया जाता है । जो मिट्टी पिण्ड पर्याय में थी, वही मिट्टी कपाल पर्याय में भी रहती है । स्वर्णका
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