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________________ २२४ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ नहीं होगा। इसी प्रकार एक विषयके अभावमें भी प्रत्याभिज्ञान नहीं हो सकता है। प्रातः देखे गये विषयसे सायंकाल भिन्न विषय देखनेपर प्रत्यभिज्ञान नहीं होगा। इसप्रकार प्रत्यभिज्ञानके द्वारा पदार्थोंमें कतचित् नित्यत्वकी सिद्धि होती है। कथंचित् क्षणिकत्वकी सिद्धि भी प्रत्यभिज्ञानके द्वारा होती है। प्रत्यभिज्ञान दो पर्यायोंका संकलन करता है। उन दो पर्यायोंमें कलभेद पाया जाता है। यदि उन पर्यायोंमें कालभेद न हो, तो एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें बुद्धिका संचार कैसे हो सकता है । 'यह वही है' इस प्रकार पूर्व पर्यायसे उत्तर पर्यायमें बुद्धिका संचार अवश्य होता है। पूर्व और उत्तर पर्यायमें एकत्वको जानने वाला प्रत्यभिज्ञान उन पर्यायोंमें कालभेदका भी ज्ञान करता है। इसलिए कालभेदसे पदार्थों में कथंचित् क्षणिकत्व सिद्ध होता है। कालभेद ज्ञानमें भी पाया जाता है, और पर्यायोंमें भी । प्रत्यभिज्ञानके विषयभूत पदार्थके दर्शनका काल भिन्न है, और प्रत्यभिज्ञानका काल भिन्न है । इसी प्रकार पूर्व पर्यायके कालसे उत्तर पर्यायका काल भी भिन्न है। विषयके कथंचित् एक और कथंचित् क्षणिक होनेपर हो प्रत्यभिज्ञान संभव है। विषय सर्वथा एक हो या सर्वथा क्षणिक हो तो प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है। ____ इसी प्रकार प्रमाता यदि सर्वथा क्षणिक है तो भी प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता है। पूर्व और उत्तर पर्यायोंको देखनेवाला एक ही होना चाहिए, तभी प्रत्यभिज्ञान होगा। यदि किसी पदार्थको देवदत्तने देखा हो तो उसमें यज्ञदत्तको प्रत्यभिज्ञान नहीं होगा। जिन पदार्थों में कार्यकारणभाव है उनमें भी एकके द्वारा पूर्व पर्यायको देखनेपर और दूसरेके द्वारा उत्तर पर्यायको देखनेपर प्रत्यभिज्ञान नहीं होगा। पिता-पुत्रमें उपादानउपादेय सम्बन्ध होनेपर भी पिताके द्वारा देखे हुए पदार्थमें पुत्रको प्रत्यभिज्ञान नहीं होगा, क्योंकि पितासे पुत्र सर्वथा पृथक है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि जिसकी एक सन्तान चलती है उसमें प्रत्यभिज्ञान होता है, और जिसकी एक सन्तान नहीं चलती उसमें प्रत्यभिज्ञान नहीं होता है । क्योंकि एक सन्तति और भिन्न सन्ततिका निर्णय कैसे होगा। जिसमें प्रत्यभिज्ञान हो उसकी एकसन्तति होती है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानके द्वारा एक सन्ततिका निर्णय करनेपर अन्योन्याश्रय दोष आता है। प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धि एक सन्तति की सिद्धिपर निर्भर है, और एक सन्ततिकी सिद्धि प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धिपर निर्भर है। इस प्रकार अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। किन्तु स्याद्वाद मतमें इस प्रकारका दूषण नहीं आता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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