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________________ २१५ कारिका-५०] तत्त्वदीपिका विकल्प पूर्वक तत्त्वकी अवाच्यताका निराकरण करनेके लिए आचार्य कहते हैं अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतां स्फुटम् ।।५०॥ तत्त्व अवाच्य क्यों है। क्या अशक्य होनेसे अवाच्य है, या अभाव होनेसे अवाच्य है, या ज्ञान न होनेसे अवाच्य है। पहला और अन्तका विकल्प तो ठीक नहीं है । यदि अभाव होनेसे तत्त्व अवाच्य है, तो इस प्रकारके बहानेसे क्या लाभ है । स्पष्ट कहिए कि तत्त्वका सर्वथा अभाव तत्त्वको अवाच्य होनेके विषयमें ऊपर तीन विकल्प किये गये हैं। अन्य विकल्प संभव नहीं है। यद्यपि ऐसी आशंका की जा सकती है कि मौनव्रतसे, प्रयोजनके अभावसे, भयसे और लज्जा आदिसे भी तत्त्व अवाच्य हो सकता है। किन्तु मौनव्रत आदिका अन्तर्भाव अशक्यत्वमें हो जानेसे ये सब विकल्प पृथक् नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि अनवबोध और अशक्यत्व भी पृथक् पृथक् न हों। क्योंकि अनवबोधमें बुद्धिकी अपेक्षा होती है, और अशक्यत्वमें इन्द्रियपूर्णताकी अपेक्षा होती है । अशक्यत्वका अर्थ है वक्तामें कहनेको शक्तिका अभाव। और अनवबोधका अर्थ है वक्तामें ज्ञानका अभाव । यह भी संभव नहीं है कि सब पुरुषोंमें ज्ञानका और इन्द्रियपूर्णताका अभाव हो । स्वयं बौद्धोंने सूगतको सर्वज्ञ माना है। सुगतमें इन्द्रियपूर्णता भी पायी जाती है। अतः यह कहना तो उचित नहीं है कि वक्तामें कहनेकी शक्ति न होनेसे या ज्ञान न होनेके कारण तत्त्व अवाच्य है। जब तत्त्व अशक्ति या अनवबोधके कारण अवाच्य नहीं है, तो पारिशेष्यसे यही अर्थ निकलता है कि अभाव होनेके कारण तत्त्व अवाच्य है। तब 'तत्त्व अवक्तव्य है' ऐसा बहाना बनानेसे क्या लाभ है। स्पष्ट कहना चाहिए कि तत्त्वका सर्वथा अभाव है। और ऐसा मानने पर केवल नरात्म्यवाद या शून्यताकी ही प्राप्ति होगी। अर्थमें संकेत संभव न होनेसे अर्थको अनभिलाप्य कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि अर्थमें संकेत पूर्णरूपसे संभव है । प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है, और उसमें संकेत भी किया जाता है। इस बातको पहले भी बतलाया जा चुका है। जिस अर्थमें संकेत किया जाता है, वह उसी समय नष्ट हो जाता है, और व्यवहारकालमें भिन्न ही अर्थ उपलब्ध होता है, अत: शब्द अर्थका वाचक नहीं है, ऐसी आशंका भी ठीक नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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