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________________ २०६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् । भोपादाननियामोऽभून्माश्वासः कार्यजन्मनि ॥४२॥ यदि कार्य सर्वथा असत् है, तो आकाशपुष्पकी तरह उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। तथा कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान कारणका नियम और विश्वास भी नहीं हो सकता है । कार्य कथंचित् सत् है, और कथंचित् असत् । द्रव्यकी अपेक्षासे कार्य सत् है, और पर्यायकी अपेक्षासे असत् है। यदि द्रव्यकी अपेक्षासे भी कार्य असत् हो, तो उसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है। अकाशपुष्पके सर्वथा असत् होनेसे त्रिकालमें भी उसकी उत्पत्ति संभव नहीं है। कार्य उपादानरूपसे सत् है। घटका उपादान मिट्टी है, मिट्टीरूपसे घटका सद्भाव सदा रहता है। मिट्टीका ही घटरूपसे परिणमन होता है। इसलिए मिट्टीद्रव्यकी अपेक्षासे घटका सद्भाव घटकी उत्पत्तिके पहिले भी रहता है। यथार्थमें अन्वय-व्यतिरेकके सद्भावमें ही कार्यकारणभाव सिद्ध होता है। कारणके होनेपर कार्यका होना अन्वय है, और कारणके अभावमें कार्यका न होना व्यतिरेक है। सर्वथा क्षणिकवादमें अथवा सर्वथा असत्कार्यवादमें कार्य-कारणमें अन्वय-व्यतिरेक बन ही नहीं सकता है। क्योंकि वहाँ कारणके अभावमें ही कार्यकी उत्पत्ति मानी गयी है, और कारणके होनेपर कार्यकी उत्पत्ति नहीं मानी गयी है। असत्कार्यवादमें अन्वय-व्यतिरेकके अभावमें कार्य-कारण सम्बन्ध किसी भी प्रकार संभव नहीं है । अतः कार्य सर्वथा असत् नहीं है। कार्यके सर्वथा असत् होनेपर उसकी उत्पत्ति असंभव है। जो कार्य सर्वथा असत है, उसका कोई कारण नहीं हो सकता है। वन्ध्यापुत्र सर्वथा असत् है, तो उसका कोई कारण भी नहीं है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सहित द्रव्यमें ही कार्य-कारण सम्बन्ध बनता है। निरन्वय विनाशमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं बन सकता है। दो पदार्थों में कार्यकारण सम्बन्ध सिद्ध होनेपर ही पूर्व-पूर्व पर्याय उत्तर-उत्तर पर्यायमें परिणत हो जाती है। जैसे मृत्पिण्ड, स्थास, कोश, कुसूल और घट, इनमें से पूर्व-पूर्व पर्याय उत्तर-उत्तर पर्यायमें परिणत हो जाती है । यह बात सबको प्रत्यक्षसिद्ध है। बौद्ध कहते हैं कि जहाँ आगे-आगे सदृश पर्यायोंकी उत्पत्ति होती जाती है, वहाँ उपादानका नियम होता है। अर्थात् वहाँ पूर्व पर्याय उत्तरपर्यायकी उपादान होती है। और जहाँ सदृश पर्यायकी उत्पत्ति नहीं होती है वहाँ उपादानका नियम नहीं होता है। मिट्टी और घटमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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