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________________ कारिका -४१ ] तत्त्वदीपिका २०५ है । पदार्थका स्वभाव स्थिति है, क्योंकि वह अपनी स्थिति के लिए किसीकी अपेक्षा नहीं करता है । यदि पदार्थकी स्थिति दूसरे कारणोंसे होती है, तो प्रश्न होता है कि वह स्थिति पदार्थसे भिन्न होती है या अभिन्न । भिन्न स्थिति से तो कोई लाभ नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर पदार्थ स्थिर नहीं रह सकेगा । अभिन्न स्थिति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्थिति उसकी होगी जो स्थित है, और स्थित पदार्थकी स्थिति करना व्यर्थ ही है । जो पदार्थ स्थित ही नहीं है उसकी स्थिति कैसे होगी । खरविषाणकी स्थिति कभी नहीं हो सकती है। 1 बौद्ध कहते हैं कि शब्द, विद्युत् आदिका अन्तमें विनाश देखा जाता है, इसलिए आदिमें शब्द आदिका विनाश मान लेना ठीक है । यही बात स्थिति के विषय में भी कही जा सकती है । शब्द, विद्युत् आदिकी आदिमें स्थिति देखे जानेसे अन्तमें भी उनकी स्थिति मान लेना चाहिए । शब्द, विद्युत् आदिकी उत्पत्तिका कोई कारण न दिखने पर भी उनके उपादान कारणका अनुमान किया जाता है । इसी प्रकार शब्द, विद्युत् आदिके नष्ट हो जाने पर उनके कार्यको न दिखने पर भी कार्यका अनुमान किया जा सकता है । तात्पर्य यह है कि शब्द, विद्युत् आदिका भी सर्वथा नाश नहीं होता है, किन्तु पर्यायका ही नाश होता है । और उस पर्यायके नाश होने पर दूसरी पर्यायकी उत्पत्ति होती है । जो पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे स्थितिशील है उसीमें पर्यायका होना संभव है । जो पदार्थ स्थित ही नहीं है उसको पर्यायें नहीं हो सकती हैं । जैसे कि गगनकुसुमकी कोई पर्याय संभव नहीं है । इस प्रकार सर्वथा क्षणिकवाद असंगत ही है । 1 यथार्थ में बौद्धाभिमत निरन्वय क्षणिकवाद में कार्य-कारण सम्बन्ध आदि कुछ भी नहीं बन सकता है । कार्य-करण सम्बन्ध के अभाव में प्रेत्यभाव, पुण्य, पाप आदि भी संभव नहीं हैं । क्षणक्षयैकान्त में संतान भी संभव नहीं है, जिससे कि संतानकी अपेक्षा से प्रेत्यभाव आदि बन सकें । इस प्रकार क्षणिकवाद बुद्धिमानोंके द्वारा ग्राह्य नहीं है, क्योंकि उसमें किसी प्रकारकी अर्थक्रिया संभव नहीं है । और अर्थक्रियाके अभाव में पुण्य, पाप, प्रेत्यभाव, प्रत्यभिज्ञान, बन्ध, मोक्ष आदि भी कुछ संभव नहीं है । बौद्ध कार्यको सर्वथा असत् मानते हैं । इसका खण्डन करनेके लिए आचार्य कहते हैं— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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