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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-२ सकते हैं । कथंचित् उभयैकान्त मानना तो ठीक है, परन्तु सर्वथा उभयकान्त मानना किसी भी प्रकार ठीक नहीं है । सर्वथा विरोधी दो धर्मों में से एक की विधि होने पर दूसरे का निषेध स्वतः प्राप्त होता है । वन्ध्या
और बन्ध्यापुत्र ये परस्पर विरोधी बातें हैं। इन में से वन्ध्या के सिद्ध होने पर वन्ध्यापुत्र का निषेध स्वतः हो जाता है और वन्ध्यापुत्र का निषेध होने पर वन्ध्या का सद्भाव स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसी प्रकार तत्त्व को सर्वथा भेदरूप होने पर अभेद का निषेध और सर्वथा अभेदरूप होने पर भेद का निषेध स्वतः प्राप्त है। अतः दोनों का सद्भाव संभव न होने से उभयकान्त की कल्पना आकाशपुष्प के समान निरर्थक ही है।
सर्वथा भैदैकान्त, अभेदैकान्त और उभयै कान्तके सिद्ध न होने पर जो लोग अवाच्यतैकान्त को मानते हैं, उनका मत भी ठीक नहीं है। तत्त्व को सर्वथा अवाच्य होने पर 'अवाच्य' शब्द के द्वारा उसका प्रतिपादन कैसे किया जा सकता है। जब तत्त्व को अवाच्य शब्द के द्वारा कहा जाता है तब अवाच्य शब्द का वाच्य होने से तत्त्व सर्वथा अवाच्य नहीं रहता है । इस प्रकार उभयकान्त और अवाच्यतैकान्त पक्ष ठीक नहीं हैं। __ परस्पर सापेक्ष पृथक्त्व और एकत्व अर्थक्रियाकारी होते हैं, इस बात को बतलाने के लिए आचार्य कहते हैं
अनपेक्षे पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तु द्वयहेतुतः ।
तदेवैक्यं पृथक्त्वं च स्वभेदैः साधनं यथा ॥३३॥ परस्पर निरपेक्ष पृथक्त्व और एकत्व दोनों दो हेतुओं से अवस्तु हैं । वही वस्तु एक भी है और पृथक भी है। जैसे कि साधन के एक होने पर भी अपने भेदों के द्वारा वह अनेक भी है।
पहले भेदैकान्त और अभेदैन्त का खण्डन किया गया है। भेदैकान्त और अभेदैकान्त के खण्डन में जो हेतु दिये गये हैं, उनको भी पहले बतलाया जा चुका है। परस्पर निरपेक्ष पथक्त्व और एकत्व दोनों अवस्तु हैं । पृथक्त्व अवस्तु है, एकत्व निरपेक्ष होने से। एकत्व भी अवस्तु है, पृथक्त्व निरपेक्ष होने से । इस प्रकार दो हेतुओं से दोनों में अवस्तुत्व सिद्ध किया जाता है । वस्तु न सर्वथा भेदरूप है, और न सर्वथा अभेदरूप ! क्योंकि वस्तु को सर्वथा भेदरूप और सर्वथा अभेदरूप मानने में प्रत्य
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