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________________ १८१ कारिका-२७] तत्त्वदीपिका ___ अद्वत द्वतका अविनाभावी है, इस बातको दिखलानेके लिए आचार्य कहते हैं अद्वैत न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना। संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ।।२७।। द्वैतके विना अद्वैत नहीं हो सकता है, जैसे कि हेतुके विना अहेतु नहीं होता है। कहीं भी प्रतिषेध्यके विना संज्ञीका निषेध नही देखा गया है। ___ जो लोग केवल अद्वैतका सद्भाव मानते हैं उनको द्वैतका सद्भाव मानना भी आवश्यक है । क्योंकि अद्वैत द्वैतका अभिनाभावी है। अद्वैत शब्द भी द्वैत शब्द पूर्वक बना है। 'न द्वैतं इति अद्वैतम्' जो द्वैत नहीं है, वह अढत है। जब तक यह ज्ञात न हो कि द्वैत क्या है, तब तक अद्वतका ज्ञान होना असंभव है। अतः अद्वैतको जाननेके पहले द्वैतका ज्ञान होना आवश्यक है। द्वैतके विना अद्वैत हो ही नहीं सकता है। जैसे अहेतुके विना हेतू नहीं होता है। साध्यका जो साधक होता है, वह हेतु कहलाता है। किसी साध्यमें एक पदार्थ हेतु होता है, और दूसरा अहेतु। वह्निके सिद्ध करने में धूम हेतु होता है, और जल अहेतु होता है। अथवा एक ही पदार्थ किसी पदार्थको सिद्ध करने हेतु होता है, और दूसरे पदार्थको सिद्ध करने में अहेतु होता है। जैसे वह्निको सिद्ध करनेमें धूम हेतु होता है, और जलको सिद्ध करनेने धूम अहेतु होता है । कहनेका तात्पर्य केवल इतना है कि अहेतुका सद्भाव हेतुका अभिनाभावी है। विना हेतु के अहेतु नहीं हो सकता है । अतः अद्वैत द्वैतका उसी प्रकार अविनाभावी है, जिस प्रकार कि अहेतु हेतुका अविनाभावी है। _____ जो लोग वैतका निषेध करते हैं उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी संज्ञी ( नामवाले ) का निषेध निषेध्य वस्तुके अभावमें संभव नहीं है । गगनकुसुम या खरविषाणका जो निषेध किया जाता है, वह भी कुसुम और विषाणका सद्भाव होनेपर ही किया जाता है। यदि कुसुम और विषाणका सद्भाव न होता तो गगनकुसुम और खरविषाणका निषेध नहीं किया जा सकता था। इसलिए जो लोग द्वैतका निषेध करते हैं । उन्हें द्वैतका सद्भाव मानना ही पड़ेगा। पुरुषाद्वैतवादी कहते हैं कि परप्रसिद्ध द्वैतका प्रतिषेध करके अद्वैतको सिद्धि करने में कोई दूषण नहीं है । स्व और परके विभागसे भी वैत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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