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________________ १८० आप्तमीमांसा [परिच्छेद-२ ब्रह्माद्वैतवादियोंका उक्त कथन ठीक नहीं है। हेतु और साध्यमें कथंचित् तादात्म्य मानना तो ठीक है, किन्तु सर्वथा तादात्म्य मानना ठीक नहीं है। सर्वथा तादात्म्य माननेपर उनमें साध्य-साधनभाव हो ही नहीं सकता है। इसी प्रकार आगमसे भी ब्रह्मकी सिद्धि करनेपर आगमको ब्रह्मसे अभिन्न नहीं माना जा सकता है। यदि ब्रह्मसाधक आगम ब्रह्मसे अभिन्न है, तो अभिन्न आगमसे ब्रह्मकी सिद्धि कैसे हो सकती है। अतः हेतु और ब्रह्मका द्वैत तथा आगम और ब्रह्मका द्वैत होनेसे अद्वतकी सिद्धि संभव नहीं है । स्वसंवेदनसे भी पुरुषाद्वैतकी सिद्धि संभव नहीं है स्वसंवेदन से पुरुषाद्वैतकी सिद्धि करनेपर पूर्वोक्त दूषणसे मुक्ति नहीं मिल सकती है । ब्रह्म साध्य है, और स्वसंवेदन साधक है। यहाँ साध्य-साधकके भेदसे वैतकी सिद्धिका प्रसंग बना ही रहता है। और साधनके विना अद्वैतकी सिद्धि करनेपर द्वैतकी सिद्धि भी उसी प्रकार क्यों नहीं होगी। कहने मात्रसे अभीष्ट तत्त्वकी सिद्धि माननेपर वादीकी तरह प्रतिवादीके अभीष्ट तत्त्वकी सिद्धि भी हो जायगी। बृहदारण्यकवार्तिकमें ब्रह्मके विषयमें कहा गया है आत्माऽपि सदिदं ब्रह्म मोहात्पारोक्ष्यदूषितम् । ब्रह्मापि स तथैवात्मा सद्वितीयतयेक्ष्यते ॥ आत्मा ब्रह्मेति पारोक्ष्यसद्वितीयत्वबाधनात् । पुमर्थे निश्चितं शास्त्रमिति सिद्धं समीहितम् ॥ इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि एक सद्रूप ब्रह्म ही सत्य है, किन्तु मोहके कारण आत्मा या ब्रह्मकी दो रूपसे प्रतीति होती है। आगम द्वैतका बाधक एवं अद्वैतका साधक है। उक्त कथन भी तर्कसंगत नहीं है। यदि मोहके कारण द्वैतकी प्रतीति होती है, तो मोहका सद्भाव वास्तविक है या अवास्तविक । यदि मोह अवास्तविक है, तो वह द्वैतकी प्रतीतिका कारण कैसे हो सकता, और मोहके वास्तविक होनेपर द्वैतकी सिद्धि अनिवार्य है। इस प्रकार ब्रह्मकी सिद्धि में उभयतः दूषण आता है। हेतु और आगमसे ब्रह्मकी सिद्धि करनेपर द्वैतकी सिद्धि होती ही है। और वचनमात्रसे अद्वतकी सिद्धि माननेपर द्वैतकी सिद्धि भी वचनमात्रसे होने में कौनसी बाधा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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