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________________ [ २१ ख] 'सर्वज्ञता' शब्दका प्रयोग दो अर्थोंमें किया जा सकता है—(१) प्रत्येक वस्तुके सार ( मूल तत्त्व ) को जान लेना सर्वज्ञता है। जैसे 'ब्रह्म प्रत्येक वस्तुका सार है' ऐसा जान लेना प्रत्येक वस्तुका जान लेना है और यही सर्वज्ञता है। (२) प्रत्येक वस्तुके विषयमें विस्तृत ज्ञान प्राप्त करना सर्वज्ञता है। मीमांसक दूसरे प्रकारकी सर्वज्ञताका निषेध करते हैं। उनके अनुसार पुरुष अपनी सीमित शक्तियोंके कारण सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। यहाँ यह विचारणीय है कि कुछ व्यक्तियोंके विषयमें सर्वज्ञताका निषेध किया जा सकता है, किन्तु सबकेविषयमें सर्वज्ञताका निषेध नहीं किया जा सकता। क्योंकि सबके विषयमें सर्वज्ञताका निषेध सर्वज्ञ ही कर सकता है। स्याद्वादके विषयमें भी कुछ कहना आवश्यक है। क्योंकि स्याद्वादकी संस्थिति आप्तमीमांसाका उद्देश्य है । सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, वेदान्त और हीनयान ये यथार्थवादी दर्शन हैं। जैनदर्शन भी यथार्थवादी दर्शन है। यथार्थवादकी दो विशेषताएँ हैं-(१) यह अनुभववादी होता है और (२. यह किसी वस्तुको असत्य या मिथ्या नहीं मानता है। जैनदर्शन भी इन विशेषताओंको मानता है। इसके अतिरिक्त जनदर्शनकी विशेषता यह भी है कि वह अन्य दर्शनोंको एकान्तवादी मानता है और मेरे विचारसे ऐसा मानना यथार्थवादियोंके लिए उचित उत्तर है। क्योंकि यदि सब अनुभवोंको स्वीकार करना है तो स्याद्वादको मानना अनिवार्य है। और यह सुप्रसिद्ध है कि जैनदर्शनने स्याद्वादविषयक न्यायशास्त्रका पूर्ण विकास किया है । स्याद्वादको स्वीकार किये बिना यथार्थवादको स्वीकार नहीं किया जा सकता है। जैनदर्शन में स्याद्वादके अनुसार अन्य समस्त दृष्टियोंका समन्वय उपलब्ध होता है। वाराणसी १५-१-७५ ( डॉ० ) रमाकान्त त्रिपाठी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, दर्शनविभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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