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________________ १५६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ प्रतिभास सामान्यकी अपेक्षासे नाना पर्यायोंमें, उपादान और उपादेयमें तथा गुण-गुणी आदिमें कथंचित् एकत्व भी है । प्रत्येक तत्त्वकी व्यवस्था प्रतिभास या अनुभवके अनुसार होती है। अतः अपेक्षाभेदसे एक हो वस्तुमें सत्त्व और असत्त्वका सद्भाव मानने में किसी भी प्रकारका विरोध नहीं आता है । सत्त्व और असत्त्वमें शीत और उष्ण स्पर्शके समान सहानवस्थानलक्षण विरोध संभव नहीं है। क्योंकि एक ही वस्तुमें दोनोंका एक साथ सद्भाव देखा जाता है। परस्परपरिहारस्थितिलक्षण विरोध भी नहीं हो सकता है। क्योंकि यह विरोध उन्हीं दो पदार्थों में पाया जाता हैं, जो एक ही स्थानमें संभव हैं। जैसे एक आम्रफलमें रूप और रसमें परस्परपरिहार-स्थितिलक्षण विरोध है। असंभव दो पदार्थोमें यह विरोध नहीं पाया जाता है, जैसे पुद्गलमें ज्ञान और दर्शनका विरोध कभी नहीं हो सकता। एक संभव हो और दूसरा असम्भव हो, तो ऐसे पदार्थों में भी यह विरोध सम्भव नहीं है। जैसे पुद्गलमें रूप और ज्ञानका विरोध सम्भव नहीं है। तात्पर्य यह है कि परस्पर परिहारस्थितिलक्षण विरोध सम्भव पदार्थों में ही होता है। यदि कोई कहता है कि सत्त्व और असत्त्वमें परस्परपरिहारस्थितिलक्षण विरोध है, तो उसके कहनेसे ही दोनोंका एक ही स्थानमें सद्भाव सिद्ध होता है। बध्यघातकलक्षण विरोध भी एक बलवान् तथा दूसरे अबलवान् पदार्थों में पाया जाता है, जैसे सर्प और नकुलमें । सत्त्व और असत्त्व दोनोंको समान बलवाला होनेसे उनमें यह विरोध भी सम्भव नहीं है। अतः यह निर्विवाद सिद्ध है कि सत्त्व और असत्त्व दोनोंमें किसी प्रकारका विरोध नहीं है। और प्रत्येक पदार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे एक, क्रमरहित, अन्वयरूप, सामान्यात्मक, सत्स्वरूप और स्थितिरूप है। तथा पर्यायको अपेक्षासे अनेक, क्रमिक, व्यतिरेकरूप, विशेषात्मक, असत्स्वरूप और उत्पत्ति-विनाशरूप है। आत्मद्रव्य निश्चयनयसे स्वप्रदेशव्यापी है, व्यवहारनयसे स्वशरीरव्यापी है, और कालको अपेक्षासे त्रिकालगोचर है। आत्मा चैतन्यकी अपेक्षासे एक होकर भी सुखादिके भेदसे अनेकरूप है, तथा सजातीय और विजातीय पदार्थोसे अत्यन्त भिन्न है। चाहे चेतन तत्त्व हो या अचेतन, प्रत्येक तत्त्व सत्-असत्, सामान्य-विशेष आदिरूपसे अनेकान्तात्मक है, और इस प्रकारके तत्त्वका प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ज्ञान होता है। प्रत्येक तत्त्वके विषयमें यही व्यवस्था है। ऐसा न माननेसे किसी भी तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकती है। इस प्रकार प्रथम और द्वितीय भङ्गको बतलाकर अन्य भङ्गोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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