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________________ १५५ कारिका-१५] तत्त्वदीपिका अपेक्षासे ही असत् होती तो विरोध स्पष्ट था। किन्तु जब भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे वस्तु सत् और असत् है, तो उसमें विरोधकी कोई बात ही नहीं है। इसीप्रकार एक वस्तुको विषय करनेवाले, एक ही आत्मामें रहनेवाले और भिन्न-भिन्न कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले शाब्दज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानमें स्वभावभेद होने पर भी आत्मद्रव्यको अपेक्षासे एकपना है, क्योंकि दोनों ज्ञान आत्मासे अभिन्न हैं, आत्मासे उनको पृथक नहीं किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि दोनों ज्ञान कथंचित् भिन्न तथा कथंचित् अभिन्न हैं। भिन्न तो इसलिये हैं कि भिन्न कारणोंसे उनकी उत्पत्ति होती है, तथा स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभास भेद भी पाया जाता है। और अभिन्न होनेका कारण यह है कि जिस आत्मामें वे उत्पन्न होते हैं, उससे पृथक् नहीं किये जा सकते । शाब्दज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानकी उत्पत्तिका उपादान कारण आत्मा है तथा दोनोंकी उत्पत्तिके निमित्त कारण क्रमशः शब्द और इन्द्रियादि हैं। बौद्धोंके अनुसार न तो एकत्व है, और न आत्मा है । प्रत्येक पदार्थ क्षण क्षणमें नष्ट होता है, एक क्षणका दूसरे क्षणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि ऐसा है, तो कार्य और कारणमें उपादान और उपादेयभाव नहीं बन सकता है। घटरूप कार्यका मिट्टी उपादान कारण है। मिट्टी द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य है। मिट्टी नित्य है, इसीलिए घटपर्यायरूपसे उसका परिणमन होता है । यदि उपादान कारण नितान्त क्षणिक होनेसे कार्यकाल तक स्थिर नहीं रहता है, और कार्योत्पत्तिके एक क्षण पूर्व ही नष्ट हो जाता है, तो जिस प्रकार दो घण्टा अथवा दो दिन पहले नष्ट हुआ कारण कार्योत्पत्तिमें निमित्त नहीं हो सकता है, उसी प्रकार एक क्षण पूर्व नष्ट हुआ कारण भी कार्योत्पत्तिमें निमित्त नहीं हो सकता है। अतः यह मानना आवश्यक है कि उपादान कारण कार्यकाल तक केवल जाता ही नहीं है, किन्तु कार्यरूपसे परिणत भी होता है। उपादान और उपादेयमें द्रव्यकी अपेक्षासे एकत्व है, और पर्यायकी अपेक्षासे नानात्व है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि पूर्व और उत्तर स्वभाव अथवा पर्यायें भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं हैं, पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें क्रम है, एकत्व नहीं है। यथार्थमें पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें क्रमकल्पनाका कारण प्रतिभासविशेष है। एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें भिन्न प्रतिभास पाया जाता है, इसलिए उनमें एकत्व नहीं है । लेकिन सम्यग्रीतिसे विचार करने पर यह भी अनुभवमें आता है कि नाना पर्यायोंमें सर्वथा प्रतिभास विशेष ही नहीं पाया जाता है, किन्तु कथंचित् प्रतिभास सामान्य भी पाया जाता है। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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