SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका - १० ] तत्त्वदीपिका ११५ आवरण विगम ( दूर होना ) को अभिव्यक्ति माना जाय तो इस पक्ष में भी आवरणका विगम पहिले था या नहीं, ये दो विकल्प होते हैं । यदि आवरणका विगम पहिले था, तो फिर पुरुषके व्यापारकी कोई आवश्यकता नहीं है । और यदि आवरणका विगम पहिले नहीं था तो उसका प्रागभाव मानना आवश्यक है । शब्द में कर्ण से सुननेरूप विशेषताके होनेको अभिव्यक्ति मानने में भी वही विकल्प होते हैं कि वह विशेषता पहिले थी या नहीं । अतः शब्दकी अभिव्यक्ति माननेमें अनेक दोष आनेके कारण शब्दकी उत्पत्ति मानना ही न्याय संगत है । जिस वस्तु की अभिव्यक्ति होती है वह व्यङ्ग्य कहलाती है, और जो अभिव्यक्ति करता है वह व्यञ्जक कहलाता है । घट व्यङ्गय है और दीपक व्यञ्जक । मीमांसक यदि अपनी हठके कारण तालु आदिको शब्दका व्यञ्जक मानता है, कारक ( उत्पादक ) नहीं, तो दण्ड, चक्र आदिको भी घटका व्यञ्जक मानना चाहिये, क्योंकि दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । और यदि दण्ड, चक्र आदि घटके कारक हैं, तो तालु आदिको भी शब्द के कारक मानना आवश्यक है । ऐसा नियम नहीं है कि जहाँ व्यञ्जक हो वहाँ व्यङ्ग्यको होना ही चाहिये । व्यञ्जकके होने पर व्यङ्ग हो भी सकता है और नहीं भी । जैसे रात्रिमें दीपक (व्यञ्जक) के होने पर घट ( व्यङ्ग्य । हो भी सकता है और नहीं भी । किन्तु कारकके विषय में यह बात नहीं है । जहाँ कारक होगा वहाँ नियमसे कार्यकी उत्पत्ति होगी । हम जानते हैं कि तालु आदिके व्यापार करनेपर नियमसे शब्दकी उपलब्धि देखी जाती है । अतः तालु आदि शब्दके व्यञ्जक नहीं हैं, किन्तु कारक हैं । जैसे कि दण्ड, चक्र आदि घटके कारक हैं । शंका- वर्णोंको सर्वगत होनेसे जहाँ व्यञ्जकका व्यापार होगा वहाँ शब्दकी उपलब्धि होगी ही, ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है । उत्तर - मीमांसक वर्णोको व्यापक मानते हैं । अ, ई, क, ख आदि प्रत्येक वर्ण संसार में सब जगह व्याप्त है । किन्तु वर्णोंमें व्यापकताकी सिद्धि किसी प्रमाणसे नहीं होती है । फिर भी यदि मीमांसक वर्णोंको व्यापक मानते हैं तो घटको भी व्यापक मानना चाहिए। हम कह सकते हैं कि शब्दकी तरह घट भी व्यापक है, इसीलिये दण्ड, चक्रादिके व्यापार द्वारा नियमसे घटकी उपलब्धि होती है । इस प्रकार दण्ड, चक्र आदि भी घटके व्यञ्जक ही सिद्ध होंगे, कारक नहीं । सांख्य के अनुसार घट भी व्यापक है । इसीलिये सांख्य कहते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy